पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/८०

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नही---अब भी आराम नहीं। रहने दे, मैं यहीं आराम करूँगा यहीं गिरूँगा, यहीं मरूंँगा---जा---छोड़, छोड़।

लौट हो जाता। शायद् शान्ति मिल जाती। पर। पर। पर। लौटने का ठिकाना किधर है? और आ किधर से रहा हूं-कुछ भी तो नहीं मालूम। दौड़ा दौड़ा आ रहा हूँ---इधर देखा न उधर। आज से पा रहा हूँ? जन्म समाप्त हो चला। सारा समय मार्ग मे ही बीत गया---फिर भी कहती है-'थोड़ा और'। लौटने दे। पर लौटने का समय कहाँ है? घर बहुत दूर है। उसकी राह जवानी से बुढापे तक की है। अब बूढ़ा तो हो गया, जवानी अब कहाँ से आवेगी? अब लौटना व्यर्थ है। असम्भव है? तब? तब क्या यहीं मारना होगा? यहीं? मार्ग मे? कॉटे और पत्थरों से भरी धरती मे? हिंसक जन्तुओं से भरे जंगल मे? हे भगवान, जवानी से बुढ़ापे तक, दौड़ने-मरने-सबकुछ त्यागने का, यही-यही-यही फल मिला? हाय!

फिर वही, "थोड़ी दूर और"। यह थोड़ी दूर कितनी है? सच तो बता, ईश्वर की क़सम। अब तो वापस लौटने का समय ही नही है। प्रकाश का एक कण भी तो नहीं दीखता। तेरी ऑखें मात्र चमकतीं हैं। इन आँखों के प्रकाश मे और कब तक चलूँ? ना-ना-अब दुम नही है। मैं हाथ जोडूँ, हा हा


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