पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/८१

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खाऊँ, मुझे छोड दे। मरने को छोड़ दे। मुझे न सुख की हौस है न जीने की।

क्या कहा? मजिल आ गई? कहाँ? किधर? देखूँ? इतना क्यों हँसती है। मुझे हॅसना अच्छा नहीं लगता। ठहर। क्या सचमुच मंजिल आ गई? यह जो सामने चमक रहा है--वही क्या हमारा गन्तव्य स्थान है? पर वह तो अभी दूर है। वहाँ तक पहुँचने की ताब कहाँ है? और पहुँच कर वह भोग भोगने की शक्ति भी कहाँ रह गई है? रहने दे। अब एक पग भी न चलूँगा। चला भी न जायगा। इसका कोई उपयोग नहीं। पहुचना ही कठिन है और पहुँच कर उसका उपयोग करना तो और भी कठिन असम्भव है। भोग का समय, आयु, शक्ति, सब इस मार्ग मे समाप्त हो गई। अब क्या उस भोग को लालच की दृष्टि से तरसते मन से देखने को वहाँ जाऊँ? यह तो और भी कटु होगा। रहने दे, अब वहाँ जाने का कुछ आकर्षण नहीं रहा। तुम अक्षययौवना हो, किसी अक्षययौवना को पकडो। और मैं तो यहीं इसी मार्ग में मरा। हे भगवान्! आज शान्ति मिलती! आशा! आशा तुम जाओ-जाओ! हाय! मैं मरा! एँ! एँ! क्या कहा? वहाँ सब थकान व्याधि मिट जायगी? शान्ति भी मिल जायगी? नही? ऐसा। अच्छा भाग्यवती! चल। अच्छा चल। पर कितनी दूर है? है तो सामने ही न? अच्छा-और चार पग सही---चल-चल।


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