पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/८३

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वाला पिस्सृ डरपोक खटमल। हट मर---मैंने तुझे छोड़ा, भगवान् के नाम पर छोड़ा। लेकर रह, उसे लेकर रह, पापिष्ठ! हाय! उसी की याद आती है। उस याद मे सड़ी बास आती है, दिमाग फटा जाता है। संडास की मूर्ति, पाप की प्रतिमा, विश्वास-घात की स्याही, विष्ठा के कीड़े ये सब तेरे रूप हैं। धूर्त! बुज़दिल! निकम्मे!!

मेरी सरला बधू गांव की गॅवारी थी। सीधी साधी। आज वह कहाँ है? वह घास का सफेद फूल मसल कर किस मोरी मे डाल दिया है? कितनी चाह से मैं उसे लाया था। समझा था, वह मेरी है। उसने भी कहा था मेरी है। तू कौन था? उच्छिष्ट भोजी कौवे? काने! काले! तू कहां से देखता था? देखते देखते, ही ले भागा, तुझे मार डालूं, यह सम्भव है, पर तेरे खून के हाथ कहां धोऊँगा? यह घृणिक खून? कोढ़ के कीड़ो से गिजमिजाता खून? ना, मैं तुझे नहीं मारूंँगा, तुझे नहीं छुऊँगा। चल हट सामने से। आंखों मे क्यों गढ़ा है? अरे! निकल! नीच! अपदार्थ! मर, मुझे छोड़। हवा का रुख छोड दे। तुझे छूकर जो हवा आ रही है उसमे सांस लेने से मेरा,दम घुटता है।

तेरा दिल पुरानी हड्डी से भी अधिक सूखा है और खून मुर्दे से भी अधिक ठण्डा है। इस तरह मरे बैल की तरह क्यों


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