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पृष्ठ:अन्तस्तल.djvu/८६

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ओह! कोई पक्षी है। मैं भी कैसा मूर्ख हूँ--अपने ही पद शब्द से चौकता हूँ, अपनी ही छाया से डरता हूँ, अपने ही स्पर्श से कॉपता हूँ। काम जल्दी खतम करना चाहिये। अच्छा अब खोदूँ। कुदाल कितना भारी है। जमीन लोहे सी हो रही है। जरा सी चोट मे कितना शब्द होता है। कही यह चिल्ला न उठे। जब मर ही गया है तब क्या चिल्लायगा? उस वक्त ही नही चिल्लाने दिया---एक शब्द तो निकलने दिया ही नहीं। कैसा छटपटाया था, कितने हाथ पैर मारे थे, कितना जोर लगाया था, पर अन्त मे ठण्डा हो गया। ऑखे बाहर निकल पड़ी थीं, जीभ हलक मे लटके गई थी, गले की नसे फूल गई थीं, दो मिनट मे दम उलट दिया। ना---ना। वह बात याद न करूंँगा। कोई, सुन न ले। गला क्यों कस गया? दम घुटता है। ठहरो, कुर्ते को फाड़ डालूँ। हाथ क्या गीले है? ऐ? खून! खून! चुप! चिल्लाता क्यों हूँ? अन्धेरे मे कौन देखता है। धो लेने पर साफ! अरे! क्या वह उठता है? तू कौन? भूत कि पिशाच? तुझे भी मार डालूँगा। अब यह पल्ला किसने खींचा? पीछे कोई है क्या? पीछे फिर कर देखूँ? कोई मार न दे। मुझे क्या कोई पकड़ लेगा? सबूत? सबूत क्या है। फॉसी? मुझे? किस सबूत से? गवाह कौन है? यही बोलेगा क्या? मुर्दा! यह? ठहरो इसे दुबारा मारे देता

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