पृष्ठ:अपलक.pdf/११३

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अपलक ३ इस तरणी के हिय में बैठो जो तुम आकर; तो निधड़क खेवेगा इसे तुम्हारा चाकर इसीलिये बुला रहा हूँ तुमको अकुलाकर; तुम बिन है कठिन, सजन, इस धारा का चढ़ाव निम्न गमन-शील नाव। ४ यह नौका-संचालन मेरा व्यवसाय नहीं, नाविक होते हैं क्या मुझ से निरुपाय कहीं ? तुमने मुझको फाँसा; यह क्या अन्याय नहीं ? ले लो अपनी नौका; मुझसे क्या भाव-ताव ? लो यह दुस्तरित नाव । ५ तुम खेना जानो हो; तुम केवट हो प्रियतम पर, मैं क्या जानू यह नौका-संचालन-कम ? नौका दी तो देते नौ-विद्या कम-से-कम ! किन्तु अनाड़ी के सिर तुमने घर दिया दाँव लो अपनी जीर्ण नाव !!! केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाङ्क १ दिसम्बर १९४३ निभानवे