पृष्ठ:अपलक.pdf/११८

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अपलक के दास, ४ हम अनन्त के अभ्यासी हैं, हम न सान्त अन्तवन्त तम की माया यह सन्तत क्यों ठहरे ? निराशा क्यों हिय व्यथित करे ? ५ ये कज्जल डटे रहो के कोट भयानक, चकनाचूर, पथ पर, मत बोलो मुह से “मरे-मरे !' निराशा क्यों हिय मथित करें ? जिल्ला जेल, उन्नाव, दिनाङ्क ५ अप्रैल १९४३ } एक सौ चार