पृष्ठ:अपलक.pdf/१२०

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३ अमर मनोरय तब सिहरे, जब घहरे घन गगनाङ्गन में; नाच उठे कल्पना-मोर भी मेरे सूने निर्जन में; धन विमान पर चढ़-चढ़ आई मेरी संस्मृतियाँ दुखदाई ना जाने किस-किस गत युग की- सुध-बुध ये अपने सँग लाई? अब तो मम निस्तार निहित है, केवल आत्म विसर्जन में; प्रिय, दे दो बस अमित हलाहल इस माटी के भाजन में । ४ समझा था : अमृतत्व हँसेगा मेरी रज के कण-कण में, समझा था: रस-रास रचेगा मम सूने वृन्दावन में; पर तुम बोले: कहाँ अभी रस ? तेरा भाग्य सदा का नीरस ! घन गरजें या फुहियाँ बर से, तेरा नहीं चलेगा कुछ वस; सच कहते हो, सजन, रिक्तता ही है मेरे भाजन में; तुम क्यों देने लगे अमी रस इस घन-गर्जन के क्षण में ? जिला जेल, उन्नाव, दिनाङ्क १ अप्रेल, १९४३ } एक सौ छः