पृष्ठ:अपलक.pdf/१३

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ब हाँ, अभिव्यंजना के व्याज चाहे कुछ मिन्न हो जायं, पर और कोई गहरा अन्तर पड़ सकता है, यह मैं नहीं मानता र साम्यवादी समाज में मानव के इन रागों का रूपान्तर हो जायगा, यह मान सकना सम्भव नहीं। जब किसी गतिवान् वस्तु को देखकर कोई बच्चा वर्गहीन समाज में खिल-खिलाकर हँस उठेगा। और किलकारी भरने लगेगा तो उस वर्गहीन समाजवादी माँ को वैसा ही सुख होगा जैसा आज के पूँजी-शोषणवादी समाज की माँ को होता है। हाँ, इस सुख की अभिव्यक्ति के व्याज में अन्तर हो सकता है। श्राज की माँ, जो निर्धन और निःसाधन है, अपने बालक की किलकारी से उत्पन्न अपनी प्रसन्नता कदाचित् यो व्यक्त करे:- आली, मैं निहाल-निहाल; बैलगाडी निरख कर किलका समुद मम लाल, श्राली, मैं निहाल-निहाल । और, वर्गहीन समाज की भरी-पूरी मॉ इस सुख को कदाचित् यो व्यक्त करेगी:- आली, मैं निहाल-निहाल; लख सुएटम-चलित नभ-रथ किलकता मम लाल; अाली मैं निहाल-निहाल । उन दिनो एटम-शक्ति-चालित नभयान देखकर बच्चा हँसेगा; आज वह बैलगाड़ी चलती देख हँसे । पर उस किलक-पुलक से माँ को एक ही प्रकार का सुख मिलेगा। तब, मेरा प्रश्न यह है कि आज की काव्य-अालोचना में यह उछल-कूद क्यो ? काव्य-साहित्य का पीड़ावाद मानव की अन्तर्हित करुणा का अभिव्यंजन- मात्र है। और, जब वर्गहीन समाज के मानव मे करुण भावना के तिरोधान की कल्पना नहीं की जाती है, तब मैं यह पूछता हूँ कि उस समय करुणा की अभि- व्यक्ति से जो साहित्यिक पीड़ाबाद सृष्ट होगा वह भी क्या--जैसा कि आज के वेदनावाद के लिए विद्वान् अालोचक कहते है-पलायनवादमय सामन्तशाही समझौता-दर्शनमय एवं पूंजीप्रथा-विवशताजन्य अन्तद्वन्दमय होगा ? निवेदन है कि इस प्रकार बादो के विवाद में साहित्य-अालोचना को भ्रमित करते रहना व्यर्थ है। मैं अपने गीतो के सम्बन्ध में क्या कहूँ ? जैसे हैं, पाठको के सम्मुख उपस्थित हैं । जैसा कि मैं इस कथन के प्रारम्भ में ही कह चुका हूँ, मैं माता सरस्वती के प्रति श्रव्यभिचारी भक्ति-भाव की साधना नहीं कर सका हूँ। मेरा जीवन प्रमाद- पूर्ण श्रालस्यमय और निद्राभिभूत रहा है और है। फिर भी कुछ लिखा है और मित्रों का आग्रह था कि वह प्रकाश में लाया जाय । सो, यह समारम्भ हो रहा है। हों, एक बात कह दूं। यदि आयुष्मान पण्डित प्रयागनारायण त्रिपाठी