पृष्ठ:अपलक.pdf/२४

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अपनक गिरकर माटी में मिलने को होती है क्यों इतनी बेकल ? री क्यों बनती है तू दृग-जल ! ४ षयों अनुताप ? विषाद वृथा क्यों ? क्यों स्मरणों की बैंचा-तानी ? समझ बूझकर भी, हे मानव, अब फिर यह कैसी नादानी ? जाने दो यदि चले गए हैं वे दिन, प्रहर, निमिष वे चंचल । दरक-ढरक मत गिर, रे दृग-जल ! ५ अच्छा हाता, यदि यों होता !! पर, वह गत तो है अपुनर्भय, गत यदि पुनरावती होता, तो हो जाता जीवन नित नव, किन्तु, नहीं हो सकता परिणत वर्तमान में लुप्त विगत कल ! दरक-ढरक मत गिर, हग-जल ! ६ जीवन भी है एक पहेली; जा बीता उसको जाने दे, हो कटिबद्ध, भविष्य शेष है जो कुछ, तू उसको आने दे ! उसको ऐसा काट कि जिससे शीतल हो तब दग्ध हृदय-तल, ढरक-ढरक मत गिर, रे हग-जल ! अपनी रहनी रह निर्मम-सा; अपना पथ पहचान, हठीले, ललक लालसा से मत कर तू अपने लोचन गीले-गीले ! लुज-युज तू रहा अब तलक, अब भर हिय में सार लोह-बल ! अब मत ढरका अपना दृग-जल! प्राट