पृष्ठ:अपलक.pdf/४३

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अपलक चेतना उच्छ्वास है क्या विश्व में केवल तनिक ही ? क्या निरर्थक हैं, कहो तो, ये 'न-इति' के गान मेरे ? ओ चिरन्तन ध्यान मेरे ! ४ उस तुम्हारे मधुर मुख की जो बलाएँ हुलसती थीं, रुचिर सुषमाएँ अगणिता जो कि तुमने दान दी थीं, और वे रस-सिक्त बतियाँ जो समुद तुमने कही थीं, क्या हुई हैं लुप्त वे ? क्या मर्त्य हैं प्रणिधान मेरे ? कुछ कहो तो प्राण मेरे ! ५ आज तो तुम वेदना बन रम गए हो व्यथित मन में, और कंपन बन रमे हो, प्राण, मम संतप्त तन में, गूंजती है तब सकरुणा स्नेह वाणी मम श्रवण में; और उन्मादी हुए हैं सकल तत्त्व-विधान मेरे; ओ स्मरण-अभिमान 'मेरे ! ६ अमित जीवम-पुण्य-फल सम, तुम अतुल वरदान के सम, मम अचेतन रज-कणों में तुम चिरन्तन प्राण के सम, जब मिले, तब मिट गया था विकलता का सतत प्रम मम; किन्तु अब ? अब क्या बताऊँ भो रुचिर रसखान, मेरे ? तुम चिरन्तन ध्यान मेरे ! श्री गणेश कुटीर, प्रताप, कानपुर, दिनाङ्क ११-१-१५ } सत्ताईस