पृष्ठ:अपलक.pdf/६८

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एक सूक्ष्म आलोक झलक, इक झिलमिल अरुणिम रेखा- अंकित हुई क्षितिज में, यह भी कौतुक हमने देखा पर तिमिराभ्यासी आँखों ने मींचे संपुट अपने, और देखकर भी न देख वे सकी ज्योति के सपने पर मीलित-हग खोल धुलीं तव किरणें रक्त कणों में; प्रियतम, तव तम-हर चरणों में। 8 अपना हृदय-स्पन्दन, अपना मोह, छोह यह अपना, क्यों न व्यक्त कर दें अनबोले ? तोड़ें जीवन-सपना ? सर्वार्पण करने वालों ने मौल-तौल कब जाना ? प्रतिफल की इस उत्सुकता को उनने कब पहचाना ? मौन निवेदन ही होता है अहनिशि प्राण-परणों में; प्रियतम के तम-हर चरणों में । ५ जीवन भर की आत्म-मिवेदन-बान आज यदि छूटे, तो चिर मंगल मूल त्याग की रज्जु क्यों न फिर टूटे ? अरे, समुद अर्पण ही अर्पण चिर जीवन का क्रम है। और गृहण में मरण निहित है, प्रति फल केवल भ्रम है। 'भुञ्जीथा : त्यक्तेन सुन पड़ा यह संदेश श्रवणों में; प्रियतम के तम-हर चरणों में। श्री गणेश कुटीर, कानपुर, दिमाक २१ दिसम्बर १९४१ बावन