पृष्ठ:अपलक.pdf/७६

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अपलक सुरत स्मृतियों का जगा यह आज फिर संसार सारा; देखना क्या बीतती है अब हमारे प्राण-मन पर, सुन पड़ा है जब मृदुल स्वर । ४ हम कभी का ले चुके थे छन्द-स्वर-सन्यास मन में, हम विरागी बन चुके थे, मल चुके थे भस्म तन में, किन्तु गायन-धार, तूने धो दिया वैराग्य क्षण में, हो गए फिर से वही हम एक मजनूं घूम-फिर कर, सुन पड़ा जब हिय-हरण स्वर। श्री गणेश कुटीर, प्रताप, कानपुर, दिनाथ६-१०-३८ रात्रि ११.३५ इकसठ