पृष्ठ:अपलक.pdf/८

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ड जीवन-तत्व को, मानव की अभिव्यक्ति-प्रेरणा को, उसकी कर्मरति के स्रोत को इस प्रकार सामन्त-पूजी-शोषण-वर्ग-वादो और आर्थिक पदार्थवादों की चौखट मे जड़ने का प्रयास मानव-समाज के तत्व-निर्णय-प्रयत्न के इतिहास में एक महत्वपूर्ण विकास अवश्य है। परन्तु यदि इस ओर अत्यधिक खौचा-तानी की जायगी तो हम यथार्थ से दूर चले जायंगे। उदाहरण के लिए एक दृष्टान्त लीजिये। मनुष्य के मन मे चिन्ता, क्रोध या भय का तीन संचार होता है, तब उसका स्नायु-तन्त्र संकट का संकेत करता है और मनुष्य की इन्द्रियाँ और प्रन्थियाँ इस चिन्ता-क्रोध-भय के संकट का सामना करने के लिए कार्यरत हो जाती हैं। हमारी एड्रीनल ग्रन्थियों इस प्रकार के मनो-विकारो से शरीर के सन्तुलन की रक्षा के लिए एड्रीनेलीन नामक द्रव्य को हमारे रक्त मैं वाहित करती हैं। यह द्रव्य शरीर की रक्त शर्करा (Blood Sugar ) में आवश्यकता से अधिक वृद्धि कर देता है। इस शर्करा को शरीर- सात् करने के लिए हमारी पैंक्रियस नामक ग्रन्थियाँ देह मै इन्सुलीन नामक पदार्थ को स्रवित करती हैं। क्रोध या चिन्ता या भय की अवस्था में शरीर की ये क्रियाएं होती हैं। इस सत्य को लेकर यदि हम यह प्रतिपादित करने लगे कि भय या चिन्ता या क्रोध, एड्रीनल और पैक्रियस ग्रन्थियो के एड्रीनेलीन और इन्सुलीन क्षाब के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. यदि इस प्रकार की सिद्धान्त-स्थापना हम करने लगे-तो क्या वह बात तर्क-संगत होगी ? निःसन्देह भिन्न-भिन्न परिस्थितियाँ-सामन्तशाही, पू जीवाटी, वर्ग संघर्ष- कालीन या समाजवादी परिस्थितियाँ- मानव के कमों, उसकी अभिव्यक्तियों और उसकी प्रेरणाओं पर भिन्न-भिन्न रूप की प्रतिक्रियाएं करती है। पर, इन्हीं को समूचा मानव मान बैठना ठीक नहीं। निश्चय ही मानव रोटी है, -अन्नं वै प्राणाः–पर वह रोटी ही है, ऐसा मानना असत्य और अतार्किक है । मानव में परिस्थितियों के विपरीत भी कर्म करने का सामर्थ्य विद्यमान है। वह केवल भूत- संघ नही है.-न च भूतसंबः। वह और कुछ भी है चाहे न मानिये श्राप कि यह निष्कल ब्रह्म है. यदि इतनी बाल मान ली जाय कि वह और कुछ भी है, तो उसकी साहित्य-कृति के ये पदार्थवादी मान-दण्ड असल्य, अयथार्थ एवं भ्रामक दिखाई देगे। शेली कहता है- हे (पश्चिमी) झंझानिल ! जब तुषार-काल आता है तब क्या वसन्तागम में अत्यधिक विलम्ब हो सकता है ?