पृष्ठ:अपलक.pdf/८८

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अपलक ५ तुम्हें मिली है मानव हिय की यह चंचल ठकुरास ! पर, हमको तो मिली अचंचल मस्ती की जागीर ! सखी री, हम हैं मस्त फ़कीर । ६ क्या चिन्ता जो हम आ बैठे कारागृह में आज ? क्या भय, जो हम को घेरे है यह ऊँची प्राचीर ? सखी री, हम हैं मस्त फकीर । तुम समझो हो कि अब हो चले हम नवीन, प्राचीन ! क्यों भूलो हो कि हम अमर हैं !! हम हैं लौह शरीर !!! सखी री, हम हैं मस्त फ़कीर ! क्या पूछो हो पता हमारा ? हम हैं अगृह, अनाम ! यही पता है कि है कहीं भी अपनी नहीं कुटीर !! सखी री, हम है मस्त फकीर !!! केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाङ्क २६ दिसम्बर १९४३ तिहत्तर