पृष्ठ:अपलक.pdf/९६

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अपलक ३ क्या मुझे पार्थिव विवशता दूर तुमसे कर सकेगी ? अन्तराय अमाप क्या यह मम हृदय में भर सकेगी? यह वियोग समुद्र, मेरी श्रद्ध-नौका, तर सकेगी !!! उदित होगे हृदय-नभ में, पूर्ण शशि सम, तुम गगन-चर । तुम न पाना अतिथि बनकर । केन्द्रीय कारागार, बरेली, दिनाङ्क १० नवम्बर १९४४ इक्यासी