पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१०७

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अप्सरा के खिलाफ था। उधर गाने की तृप्ति प्राप्त करने की अपेक्षा जाने की उत्सुकता प्रबल थी। अतः मुसाहबों को ही निर्णय के लिये छोड़ उठकर खड़े हो गए । पालकी लग गई । कुँवर साहब प्रासाद चले गए। ___ इधर आम जनता के लिये द्वार खुल गया । सब तरह के आदमी भीतर धंस गए। महफिल ठसाठस भर गई । अब तक दूसरी कतार का गाना खत्म हो चुका था । कनक की बारी आ गई थी। लोग सर उठाए आग्रह से उसका मुंह ताक रहे थे। सर्वेश्वरी ने धीरे से कुछ समझा दिया । कनक के उस्तादों ने स्वर भरा, कनक ने एक अलाप ली, फिर गाने लगी- "दिल का आना था कि काबू से था जाना दिल का; ऐसे जाने से तो बेहतर था न माना दिल का। हम तो कहते थे मुहब्बत की बुरी है रस्में; खेल समझे ये मेरी जान लगाना दिल का।" खर की तरंग ने तमाम महफिल को हुषा दिया। लोगों के हृदय में एक नया स्वप्न सौंदर्य के आकाश के नीचे शिशिर के स्पर्श से धीरे- धीरे पलकें खोलती हुई चमेली की तरह विकसित हो गया। उसी स्वप्न के भीतर से लाग उस स्वर की परी को देख रहे थे । साधारण लोग अपने उमड़ते हुए उच्छवास को रोक नहीं सके। एक तरफ से आवाज आई-उवाइ कनकौत्रा, जस सुनत रहील, तइस हऊ रजा!" सभ्य जन सर झुका मुस्किराने लगे। कनक उसी धैर्य से अप्रतिम बैठी रही। एक बार राजकुमार को देखा, फिर ऑखें झुका ली। राजकुमार कलाविद् था। संगीत का उस पर पूरा असर पड़ गया था। एक बार, जब कनक के कला-ज्ञान की याद आती, हृदय के सहन कंठों से उसकी प्रशंसा करने लगता, पर दूसरे ही क्षण उस सोने की मूर्ति में भरे हुए जहर की कल्पना उसके शरीर को जजर कर देती श्री चित्त की यह डॉवाडोल स्थिति उसकी आत्मा को क्रमशः