पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१०८

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११ अप्सरा कमजोर करती जा रही थी। हृदय में स्थायी प्रभाव जहर का ही रह जाता, एक अज्ञात वेदना उसे क्षुब्ध कर देती थी । कनक के स्वर, सौदर्य, शिक्षा आदि की वह जितनी हो बातें सोचता, और ये बातें उसके मन के यंत्र को आप ही चला चलाकर उसे कल्पना के अरण्य मे भटकाकर निर्वासित कर देती थी, उतनी ही उसकी व्याकुलता बढ़ जाती थी। तृष्णातं का ईप्सित सुस्वादु जल नहीं मिल रहा था- सामने महासागर था, पर हाय, वह लवणात था। कुँवर साहब प्रासाद में पाशाक बदलकर सादे सभ्य वेश में, कुछ विश्वास-पात्र अनुचरों को साथ ले, प्रकाश-हीन माग से स्टेज की तरफ चल दिए । उनके अनुचर उन्हें चारो ओर से घेरे हुए थे. जिससे दूसरे की दृष्टि उन पर न पड़े। स्टेज के बहिार से कुँवर साहब भीतर ग्रीन-रूम में चलने लगे। एक आदमी को साथ ले और सबको वहीं, इधर-उधर, प्रतीक्षा करने के लिये कह दिया। प्रीन-रूम से कुँवर साहब ने अपने आदमी को कनक को बुला लाने के लिये भेज दिया । खबर पा माता से कुछ कहकर कनक उठकर खड़ी हो गई। जरा झुककर, एक उँगलो मुँह के नजदीक तक उठा, दशकों को श्रदव दिखला, सामने के उइंग से भीतर चलने लगी । दशकों की तरफ मुंह किए हुए उइंग की ओर फिरते समय एक बार फिर राजकुमार को देखा, दृष्टि नीची कर मुस्किराई, क्योंकि राजकुमार की आँखों में वह आग थी. जिससे वह जल रही थी। ____कनक प्रीन-रूम की तरफ चली। शंकित हृदय काँप उठा। पर कोई चारा न था। राजकुमार की तरफ असहाय आँखें प्रार्थना की अनिमेष दृष्टि से आप-ही-आप बड़ गई और हताश होकर लौट आई । कनक के अंग-अंग राजकुमार की तरफ से प्रकाश-हीन संध्या में कमल के दलों की तरह संकुचित हो गए। हृदय को अपनी शक्ति की किरण देख पड़ी, दृष्टि ने स्वयं अपना पथ निश्चित कर लिया। कनक एक उइंग के भीतर सोचती हुई खड़ी हो गई थी । चली।