पृष्ठ:अप्सरा.djvu/११०

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अप्सय ___कुँवर साहब के मनोभावों पर पड़ा हुधा भेद का पर्दा कनक के प्रति किए गए उपकार की शक्ति से ऊपर उठ गया। सहस्रों दृश्य दिखाई पड़े। आसक्ति के उद्दाम प्रवाह में संसार अत्यंत रमणीय चिरंतन, सुखों से उमड़ता हुआ, एक मात्र उद्देश्य, स्वग देख पड़ने लगा । ऐश्वर्य की पूर्ति में उस समय किसी प्रकार का देन्य न था। जैसे उनकी आत्मा में संसार के सब सुख व्याप्त हो रहे हों। उट्टाम प्रसन्नता से कुँवर साहब कनक के पास गए। जाल में फंसी हुई मृगी जिस तरह अपनी आँखों को विस्तारित कर मुक्त शून्य के प्रति मुक्ति के प्रयत्नं में निकलती रहती है, उसी दृष्टि से कनक ने कुवर साहब को देखा। इतनी सुंदर दृष्टि वर साहब ने कभी नहीं देखी। किन्हीं आँखों में उन्हें वश करने का इतना जादू नहीं था। आँखों के जलते हुए दो स्फुलिंग उनके प्रणय के बाग में खिले हुए दो गुलाब थे। प्रतिहिंसा की गर्म साँस वसंत की शीतल समीर, और उस रूप की आग में तत्काल जल जाने के लिये वह एक अधीर पतंग । स्टेज पर लखनऊ की नव्याबजान गा रही थीं- "तू अगर शमा बने, मैं तेरा परवाना बनूं।" ___ कुँवर साहब ने असंकुचित अकुंठित भाव से कनक की उन्हीं आँखों में अपनी दृष्टि गड़ाते हुए निलंब स्वर से दोहराया-"तू अगर शमा बने, मैं तेरा परवाना बनूं।" उसी तरह असंकुचित स्वर से कनक ने जवाब दिया- मैं तो शमा बनकर ही दुनिया में आई हूँ, साहब" फिर मुझे अपना परवाना बना लो.।" परखाने ने परवाने के सख- दानवाले स्वर से नहीं, तटस्थ रहकर कहा । - कनक ने एक बार आँख उठाकर देखा। "क्रिस्मत " कहकर अपनी ही आँखों की बिजली में दूर तक रास्ता देखने लगी। "क्या सोचती हो तुम भी ; दुनिया में हँसने-खेलने के सिवा और कुँवर साहब का हितोपदेश सुनकर एक बार कनक मुस्किराई।