अप्सरा १०५ कनक और अपने प्रयल की तरफ से वीतराग हो चला | फिर उसके लिये वहाँ एक एक क्षण पहाड़ की तरह वोमीला हो उठा। राजकुमार उठकर खड़ा हो गया, और बाहर निकलकर धीरे-धीरे डेरे की तरफ चला । बहूजी के मायके की याद से शरीर से जैसे एक भूत उतर गया हो, नशे के उतारे की शिथिलता थी। धीरे-धीरे चला जा रहा था । कनक की तरफ से दिल को जो चोट लगी थी, रह-रहकर नफरत से उसे और बढ़ाता, तरह-तरह की बातें सोचता हुआ चला जा रहा था। ज्यादा मुकाव कलकत्ते की तरफ़ था, सोच रहा था कि इसी गाड़ी से कलकत्त चला जायगा। जब गढ़ के बाहर निकलकर रास्ता चलने लगा, तो उसे मालूम हुआ कि कुछ आदमी और उसके साथ आ रहे हैं। उसने सोचा, ये लोग भी अपने घर जा रहे होंगे। धीरे-धीरे चलने लगा। वे लोग नजदीक आ गए । चार आदमी थे। राजकुमार ने अच्छी तरह नजर गड़ाकर देखा, सब साधारण सिपाही दर्जे के आदमी थे। कुछ न बोला, चलता रहा। हटिया से निकलकर बाहर सड़क पर आया, थे लोग भी आए। सामने दूर तक रास्ता-ही-रास्ता था, दोनो बगल खेत। राजकुमार ने उन लोगों की तरफ फिरकर पूछा-"तुम लोग कहाँ जाओगे ?" "कहीं नहीं, जहाँ-जहाँ आप जायेंगे।" "मेरे साथ चलने के क्या मानी ?" "ताय बहन ने हमें आपकी खबरदारी के लिये भेजा था, साथ चंदन बाबू भी थे। "चंदन " "हाँ, वह आज की गाड़ी से आ गए हैं।" राजकुमार की आँखों पर दूसरा पर्दा उठा । संसार अस्तित्व-युक्त और सुखों से भरा हुआ सुंदर मालूम देने लगा। आनंद के उच्छ्व- सित कंठ से पूछा-कहाँ हैं वह "
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