१०८ अप्सरा हैमिल्टन । अधिकांश मेहमान कुँवर साहब के कलकत्त के मित्र थे. बड़े-बड़े तअल्लुकदार और साहब । ये लोग उसी रोज गाड़ी से उतरे थे । बँगले में इनके ठहरने का खास इंतजाम था। ये लोग कुँवर साहब के अंतरंग मित्र थे, अंतरंग आनंद के हकदार | अपने-अपने स्थानों से इसी आशा से प्रयाण किया था। कुवर साहब ने पहले ही से वादा कर रक्खा था कि अभिषेक हो जाने के समय से अंत तक वह अपने मित्रों को समझाते रहेंगे किमित्रों की खातिरदारी किस तरह की जाती है। मित्र लोग कभी-कभी इसका तकाजा भी करते रहे हैं। कनक के आने का तार मिलते ही इन्होंने अपने मित्रों को पाने के लिये तार किया था, और करीब-करीब वे सब लोग कनक का नाम सुन चुके थे। कुँवर साहब की थोड़ी-सी जमींदारी २४ परगने में थी, जिससे कमो-कभी हैमिल्टन साहब से मिलने-जुलने का तबल्लुक्क आ जाता था। धीरे-धीरे यह मित्रता बड़ी हद हो गई थी। कारण, दोनो एक ही बाद पानी पोनेवाले थे, कई बार पी भी चुके थे, इससे हृदय भेद-भाव-रहित हो गया था । हैमिल्टन साहब को तार पाने पर बड़ो प्रसन्नता हुई । हिंदोस्तानी युवती को साहबी टुंडता, क्रूरता तथा कूटता का ज्ञान करा देने के लिये वह तैयार हो रहे थे, उसी समय उन्हें तार मिला । एक बार कुँवर साहब के माननीय मित्र की हैसियत से क्षुद्र नतंकी को देखने की उनकी लालसा प्रबल हो गई थी। वह कुछ दिन की छुट्टी लेकर चले आए। ___ कनक ने सोचा था, कुंवर साहब को अपने इंगित पर नचाएगी। राजकुमार को गिरफ्तार कर जब, इच्छा मुक्त कर उसकी सहायता से मुक्त हो जायगी। पर यहाँ और रंग देखा । उसने सोचा था, कुंवर साहब अकेले रहेंगे। पीली पड़ गई । हैमिल्टन उसे देखकर मुस्कि- राया । दृष्टि में व्यंग्य फूट रहा था । अंकुश कनक के हृदय को पार कर गया । चारो तरफ से कटाक्ष हो रहे थे। सब उसकी लज्जा को भेदकर उसे देखना चाहते थे। कनक व्याकुल हो गई। आवाज में कहीं भी अपनापन न था। ..
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