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पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१६४

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अप्सरा होनेवाली थी, किसी कारण से रुक गई थी, वह शादी होगी या नहीं आदि-आदि । वृद्धा को स्वभावतः इनसे मिलने की इच्छा हुई। जल्द जाने के विचार से तारा के प्रश्नों के बहुत संक्षिप्त उत्तर दिए । चलने लगों, तो तारा से अपनी जरूरत की चीजें बतलाकर कह दिया कि सब सँभालकर इकट्ठी कर रक्खे । तारा ने बड़ी तत्परता से उत्तर दिया कि वह निश्चित रहें । तारा जानती थी, यह सब दस मिनट का काम है, चलते समय भी कर दिया जा सकता है। तारा की सास मोटर पर गई । राजकुमार और चंदन ट्राम पर चले । राजकुमार मीतर-ही-भीतर अपने जीवन के उस स्वप्न को देख रहा था, जो किरणों में कनक को खोलकर उसके हृदय की काव्य-जन्य रूप-तृष्णा तृप्त कर रहा था। बाहर तथा भीतर वह सब सिद्धियो के द्वार पर चकर लगा चुका था। बाहर अनेक प्रकार से सुंदरी लियों के चित्र देखे थे, पर भीतर ध्यान नेत्रों से न देख सकने के कारण अब कभी उसने काव्य-रचना की, उसके दिल में एक असंपूणवा हमेशा खटकती रही। उसके सतत प्रयत्न इस त्रुटि को दूर नहीं कर सके। अब, वह देखता है, आप-ही-आप, अशब्द ऋतु-वर्तन की तरह, जीवन का एक चक्र उसे प्रवर्तित कर परिपूण चित्रकारिता के रहस्यद्वार पर ला खड़ा कर गया है । दिल में आप-ही-आप निश्चय हुआ, संदरी स्त्री को अब तक मैं दूर से प्यार करता था, केवल इंद्रियाँ देकर, आत्मा अलग रहती थी, इसलिये सिर्फ उसके एक-एक अंग-प्रत्यंग लिखने के समय आते थे, परिपूर्ण मूर्ति नहीं ; पूर्ण प्राप्ति पूर्ण दान चाहती है ; मैंने परिपूर्ण पुरुष-देह देकर संपूर्ण खो मूर्ति प्राप्त की, आत्मा और प्राणों से संयुक्त, साँस लेती हुई, पलकें मारती हुई, रस से ओत-प्रोत, चंचल, स्नेहमयी। तत्व के मिलने पर जिस तरह संतोष होता है, राजकुमार को वैसी ही तृप्ति हुई। राजकुमार जितनी भीतर की उधेड़बुन में था, चंदन उतनी ही बाहर की छानबीन में । चौरंगी की रंगीन परकटी परियों को देख जिस नेमि से उसके विचार के रथ-चक्र बराबर चार लगाया करते थे,