पृष्ठ:अप्सरा.djvu/१७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

१६ अप्सरा ताड़कर । कुछ देर तक कनक की नादानी, उसके अपराधों की क्षमा, अब राजकुमार के सिवा उसके लिये दूसरा अवलंब-मनोरंजन के लिये और विषय नहीं रहा, उसका सर्वस्व राजकुमार का है, आदि आदि बातें सर्वेश्वरी अपने को पतित सास समझ उतनी ही दूर रहकर. उतनी ही अधिक सहानुभूति और स्नेह से कहती रही। चंदन भी पूरे उदात्त स्वरों से राजकुमार की विद्या बुद्धि, सञ्चरित्रता और सबसे बढ़कर उसकी कनक-निष्ठा की तारीफ करता रहा, और समझाता रहा कि कनक-जैसी सोने की जंजीर को राजकुमार के देवता भी कभी नहीं तोड़ सकते, और चंदन के घरवाले, उसके भाई और भाभी इस संबंध को पूरी सहानुभूति से स्वीकार करते हैं। चंदन ने कुल मकान नहीं देखा था, देखने की इच्छा प्रकट की। सर्वेश्वरी खुद चलकर दिखाने लगी। मकान की सुंदरता चंदन को बहुत पसंद आई । तिमंजिले पर घूमते हुए कनक को भोजन पकाते हुए देखा । तब तक भोजन पक चुका था। राजकुमार उसके पढ़नेवाले कमरे में रह गया था। मकान देखकर चंदन भी वहीं लौट आया। सर्वेश्वरी अपने कमरे में चली गई। कनक अपने कमरे में थालियाँ लगाकर दोनो को बुलाने के लिये नीचे उतरी । देखा, दोनो एक-एक किताब पढ़ रहे थे। कनक ने बुलाया। किताब से आँख उठा बड़ी इज्जत से चंदन ने उसे देखा । उठकर खड़ा हो गया। राजकमार भी उसके पीछे चला। हाथ-मुँह धोकर दोनो बैठ गए । कनक ने कहा, छोटे साहव, उस रोज यहीं से तकरार की जड़ पड़ी थी। ____ "तुम लोगों की बेवकूकी थी", चंदन ने प्रास निगलकर कहा, "और यज्ञ, यह नरमेध-यज्ञ, विना मेरे पूरी किस तरह होती ?" ___ कनक ने सर्वेश्वरी को बुला भेजा था। सर्वेश्वरी और उसके नौकर जोड़े लिए कमरे में आए। दोनो के पास पाँच-पाँच तोड़े रखवाकर सर्वेश्वरी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। चंदन गौर से तोड़ों को देखता रहा। समझ गया, इसलिये कुछ कहा नहीं।