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पृष्ठ:अप्सरा.djvu/३५

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अप्सरा

अप्सरा उस बेशकीमत कामदार साड़ी को निकालकर रख लिया । कनक नहाने चली गई। माता एक-एक सब बहुमूल्य, हीरे-पन्ने-पुखराज के जड़ाऊ जेवर निकाल रही थी ; कनक नहाकर धूप में चारदीवार के सहारे, पीक के बल खड़ी, बाहर बालों को खोले हुए सुखा रही थी। मन राजकुमार के साथ अभिनय के सुख की कल्पना में लीन था। वह अभिनय को प्रत्यक्ष की तरह देख रही थी, उन्होंने कहा है, सोचती, मैं तुम्हें कभी नहीं मूलगा। अमृत से सर्वाग तर हो रहा था। बाल सूख गए, वह खड़ी ही रही। मावा ने बुलाया । ऊँची आवाज से कल्पना की तंद्रा छूट गई । वह धीरे-धीरे माता के पास चली। सर्वेश्वरी कन्या को सजाने लगी। पैर, कमर, कलाई, बाजू, वक्ष, गला और मस्तक अलंकारों से चमक उठे। हरी साड़ी के ऊपर तथा भीतर से रनों के प्रकाश की छटा, छुरियों-सी निकलती हुई, किरणो के बीच उसका सुंदर, सुडौल चित्र-सा खिंचा हुआ मुख, एक नजर आपाद-मस्तक देखकर माता ने तृप्ति की सांस ली। कनक एक बड़े आईने के सामने जाकर खड़ी हो गई। देखा, राजकुमार की याद आई, कल्पना में दोनोकी प्रात्माएँ मिल गई। देखा आईने में वह हँस रही थी। नीचे से प्राकर नौकर ने खबर दी, मेम साहब के साथ एक साहब पाए हुए हैं। कनक ने ले आने के लिये कहा। कैथरिन ने हैमिल्टन साहब से कहा था कि उन्हें ऐसी एक सुंदरी भारतीय पढ़ी-लिखी युवती दिखाएँगी, जैसी उन्होंने शायद ही कही देखी हो, और वह गाती भी लाजवाब है, और अँगरेजों की ही तरह उसी लहजे में अँगरेजी भी बोलती है। हैमिल्टन साहब, कुछ दिल से और कुछ पुलिस में रहने के कारण. सौंदर्योपासक बन गए थे। इतनी खूबसूरत पढ़ी-लिखी समझदार