पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१००

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अभिधर्मकोश [१०७] सौत्रान्तिक' इसकी आलोचना करते हैं: (१) चक्षुरादि इन्द्रिय का आधिपत्य आत्मभाव-परिरक्षण में नहीं है। यहाँ आधिपत्य चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञान आदि विज्ञान का है अर्थात् जान कर ही विषम-परिहार होता है, जान कर ही कबडीकार-आहार का परिभोग होता है। (२) असाधारणकारणत्व अर्थात् रूप-दर्शन आदि विज्ञान से अन्य नहीं है, यह विज्ञान का (१.४२) है, इन्द्रिय का नहीं । अन्य इन्द्रियों के आधिपत्य का व्याख्यान भी समान रूप से अयुक्त है। अतः इन्द्रियों के आधिपत्य का क्या अर्थ है ? स्वार्थोपलब्ध्याधिपत्यात् सर्वस्य च षडिन्द्रियम् । स्त्रीत्वपुंस्त्वाधिपत्यात्तु कायात् स्त्रीपुरुषेन्द्रिये ॥२॥ २ ए-वी. (१) अपने अर्थ की उपलब्धि में (२) सर्वार्थ की उपलब्धि में आधिपत्य होने से ६ इन्द्रिय हैं। अर्थात् ६ विज्ञानकाय के सम्बन्ध में उनका आधिपत्य होने से । चक्षुरादि पाँच इन्द्रिय का चक्षु- विज्ञानादि५विज्ञानकाय में आधिपत्य है । इनमें से प्रत्येक रूपादि का अर्थात् अपने-अपने अर्थ का ग्रहण करता है । मन-इन्द्रिय का आधिपत्य मनोविज्ञान पर है जो सब अर्थों की उपलब्धि करता है । इस प्रकार ६ इन्द्रिय अधिपति हैं। किन्तु क्या यह कहा जाएगा कि रूपादि इन्द्रिय-विषय का पर आधिपत्य है और इसलिए इन अर्थो को भी इन्द्रिय समझना चाहिए ? वास्तव में यह अधि- पति नहीं हैं। 'आधिपत्य' का अर्थ 'अधिकप्रभुत्व' है । चक्षु का आधिपत्य है (१) क्योंकि सर्व रूपोपलब्धि का सामान्य कारण होने से यह रूपोपलब्धि की उत्पत्ति में इस अधिकप्रभुत्व का प्रयोग करता है किन्तु प्रत्येक रूप केवल एक विज्ञान की उत्पत्ति में ही कारण होता है; (२) चक्षु की पटुता या मन्दता के अनुसार उपलब्धि भी स्पष्ट या अस्पष्ट, पटु या मन्द होती है । [१०८] रूप का ऐसा ऐश्वर्य नहीं है। अन्य विज्ञानेन्द्रिय और उनके अर्थ के लिए भी (१.४५ ए-वी) यही योजना करनी चाहिए। २ सी-डी. पुंस्त्व और स्त्रीत्व पर उनका आधिपत्य होने से काय में पुरुषेन्द्रिय और स्त्री- न्द्रिय का विशेष करते हैं। विज्ञान प्रतीत्य धर्माश्चोत्पद्यते सौमनस्यम् ।...दौर्मनस्यम्. . . उपेक्षा [व्या० ९६.५] नष्कम्य= अनातव या सास्रव मार्गअथवा निष्कमण अथवा धातु या संसार से वैराग्य'- ४.७७ यी-सी भी देखिए । आश्रित ="जसका आलम्बन है या अनुकूल' । अतः यह अर्थ है। "रूपादि के कारण ६ सौमनस्य, ६ दौमनस्य, ६ उपेक्षा है जो नष्क्रम्य के अनुकूल है।" मज्झिम, ३.२१८, संयुत्त, ४.२३२, मजिकम, ३.२१७, मिलिन्द, ४५ (नेक्खम्मसित) से तुलना कीजिए। वसुबन्धु फहते हैं: "अन्य आचार्य.. स्थि] सर्वार्थीपलचौ त्वाधिपत्यादिन्द्रियाणि षट्] [च्या० ९६.२३ में स्वार्थोपलव्याधिपत्यात् पाठ है। स्त्रोत्ये पुंस्त्वे चाधिपत्यात कायात् स्त्रीपुरुषेन्द्रिय।। व्या० ९७.५] 17