पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/११

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नात्मास्ति स्कन्धमात्रं तु क्लेश कर्माभिसंस्कृतम् । अन्तराभवसन्तत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् ॥ कोश ३११८ इस पर उनके भाष्य के निम्नलिखित शब्दों में बौद्ध दर्शन का निचोड़ ही आ गया है - "आत्मा का अस्तित्व नहीं है । जिस आत्मा में आप प्रतिपन्न है, जिसे आप एक द्रव्य मानते हैं, जो एक भव के स्कन्धों का परित्याग कर अन्य भव के स्कन्धों का ग्रहण करता है, जो अन्तरात्मा, पुरुष हैं, उस आत्मा का अस्तित्व नहीं है । भगवत् ने वास्तव में कहा है कि 'कर्म है, फल है, किन्तु कोई कारक नहीं है जो धर्मों के संकेत अर्थात् हेतुफल सम्बन्ध-व्यवस्था से पृथक् इन स्कन्धों का परित्याग और उन स्कन्धों का ग्रहण करता है। यह संकेत क्या है ? अर्थात् इसके होने पर वह होता है। इसकी उत्पत्ति से उसकी उत्पत्ति होती है। प्रतीत्य समुत्पाद।' इस पर प्रतिपक्षी प्रश्न करता है कि क्या ऐसा कोई आत्मा है जिसका प्रतिष आप नहीं करते? इसके उत्तर में कहते हैं कि हाँ, प्रज्ञप्तिसत् आत्मा का जो स्कन्धों की संज्ञा मात्र है, हम निषेत्र नहीं करते। किन्तु यह विचार हमसे कोसों दूर है कि स्कन्ध परलोक में गमन करते हैं। पंचस्कन्धात्मक आत्मा क्षणिक है, यह संसरण में असमर्थ है। हमारा यह भी कहना है कि कित्ती आत्मा के अभाव में, किसी नित्य द्रव्य के अभाव में क्लेश और कर्म से अभिसंस्कृत स्कन्धों का सन्तान (प्रवाह) माता को कुक्षि में प्रवेश करता है, और वही स्कन्ध सन्तान भरण-भव से उपपत्तिभव पर्यन्त विस्तृत होता है और इसका स्थान अन्तराभव-सन्तति लेती है।" पंच स्कन्धों के साथ प्रतीत्यसमुत्पाद का नियम अविनाभूत है। यह नियम बौद्ध दर्शन की मूल मिति है। प्रतीत्यसमुत्पाद क्या है ? इसकी महती व्याख्या है। संक्षेप में कार्यकारण के सिद्धान्त को ही प्रतीत्यसमुत्पाद कहते हैं। जैसा आचार्य जी ने लिखा है-“यह हेतु प्रत्य- यता का याद है। इसके होने पर, इस हेतु, इस प्रत्यय से, वह होता है। इसके उत्पाद से, उसका चसाद होता है। इसके न होने पर, यह नहीं होता। इसके निरोध से वह निरुद्ध होता है। यह हेतु फल-परम्परा है। इसको प्रत्ययाकार (पच्चयाकार) निदान भी कहते हैं। इस वाद का संवन्ध अनित्यता और अनात्मता के सिद्धान्त से भी है। कोई वस्तु शाश्वत नहीं है, सब धर्म क्षणिक है और हेतु-प्रत्यय जनित हैं। कर्मवाद के साथ प्रतीत्यसमुत्पाद का घनिष्ठ संबन्ध है। पुण्य- अपुष्य के विपाक के संबन्ध में कर्महेतु से फल-व्यवस्था अभिप्रेत है। यह हेतु-प्रत्ययवाद देशकाल और विषय के प्रति सामान्य है। असंख्य लोक धातुओं को, देवलोकों को और नरकों को यह हेतु- फल-संवायव्यवस्था लागू है। यह सर्व संस्कृत धर्मों पर भी लागू है। अतः भवचक्र अनादि है, (बौद्ध-धर्म-दर्शन, पृ० २२४)। ऐसा कोई आदि नहीं है जिसका हेतु उसके पूर्व न हो। हेतु और उसका फल अविनाभूत हैं। फल दूसरे फल को उत्पत्ति के लिये हेतु बन जाता है। कोई प्रवाह बहेतुफ नहीं है। कर्म-यलेश-प्रत्ययवश उत्पत्ति, उत्पत्तिवश कर्म-पलेश, पुनः अन्य कर्म-क्लेश- प्रत्ययवरा उत्पत्ति, इस प्रकार भव-चक्र का अनादित्व सिद्ध होता है। इस भव-चक्र के तीन अध्य पा मार्ग हैं जिनमें यह पुनः पुनः धूमता है, एक अतीत या पूर्व-भव, दूसरा अनागत या अपर-भव और इन दोनों के बीच में तीसरा वर्तमान या प्रत्युत्पन्न-भव । प्रतीत्यसमुत्पाद के बारह अंग हैं, मतः यह द्वाददगार चना भी कहा जाता है । 'पंच स्कन्व-संतति तीन भवों में वृद्धि को प्राप्त होती है। यह प्रतीत्यसमुत्पाद है, जिसके बारह अंग और तीन काण्ड है। पूर्व काण्ड के दो अपरान्त के