पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/११४

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अभिधर्मकोश वैभाषिक के अनुसार दौर्मनस्यवेदनीय से अर्थ 'उस कर्म से नहीं है जिसका प्रतिसंवेदन, जिसका विपाक दौर्मनस्य वेदना है किन्तु यह "वह कर्म है जिससे दीर्मनस्य का संप्रयोग है। वास्तव में सूत्र स्पर्श को सुखवेदनीय कहता है किन्तु सुख स्पर्श का विपाक नहीं है । सव प्रमाण [१२६] इसका समर्थन करता है कि सुखवेदनीय स्पर्श बंह स्पर्श है जिससे सुखवेदना का संप्रयोग है। अतः दौर्मनस्यवेदनीय कर्म वह कर्म है जिससे दौर्मनस्यवेदना का संप्रयोग है। हमारा उत्तर है : आपको सौमनस्यवेदनीय और उपेक्षावेदनीय का भी उसी प्रकार व्याख्यान करना चाहिए जैसे आप दौर्मनस्यवेदनीय का करते हैं क्योंकि यह तीनों पद सूत्र की एक ही गणना में आते हैं। इससे यह परिणाम निकलता है कि सौमनस्यबेदनीय कर्म वह कर्म है 'जिससे सौमनस्यवेदना का संप्रयोग है, यह वह कर्म नहीं है जिसका विपाक सौमनस्य है' और इसलिए सौमनस्य विपाक नहीं है । वैभाषिक-मैं संप्रयोग में भी द्वेष नहीं देखता, विपाक में भी नहीं देखता । जहां तक सौमनस्यवेदनीय का संबंध है यह 'विपाकत्वेन वेदनीय सौमनस्य' हो सकता है और वह भी हो सकता है जिससे सौमनस्य का संप्रयोग है'। किन्तु दौर्मनस्यवेदनीय के लिए वेदनीय का द्वितीय व्याख्यान ही युक्त है। यह वह कर्म है जिससे दौर्मनस्य का संप्रयोग है । हमारा उत्तर है : यदि एक दूसरा प्रश्न न होता अर्थात् यदि युक्ति से यह परिच्छिन्न होता कि दौर्मनस्य विपाक नहीं है तो अगत्या हम आपके दिए हुए सूत्र के आख्यान को स्वीकार करते।' वैभाषिक-दौर्मनस्य परिकल्प-विशेष से उत्पादित होता है : यथा जब कोई अनिष्ट-चिन्तन करता है। इसी प्रकार उसका व्युपशम होता है जब वह इष्ट-चिन्तन करता है। किन्तु विपाक के लिए ऐसा नहीं है । किन्तु हम कहेंगे कि सौमनस्य का भी ऐसा है। इसलिए वह विपाक न होगा। वैभाषिक-यदि जैसा कि आपका मत है कि दौर्मनस्य विपाक होता है जब एक पुद्गल भान न्तर्य करता है और इस विषय में दौर्मनस्य का प्रतिसंवेदन करता है यहां कौकृत्य (२.२९ डी)का अनुभव करता है तो हम कह सकते हैं कि सावद्य सद्यः विपाक-फल देता है जो अयुक्त है (२.५६ ए)। [१२७] किन्तु आप स्वीकार करते है कि सौमनस्य विपाक है और हम आपके सदृश तर्क करेंगे:

एक पुद्गल पुण्य कर्म करता है और सौमनस्य का अनुभव करता है । अतः यह कर्म

सद्यः विपाक-फल देता है। 3 आचार्य की व्युत्पत्ति के अनुसार सौमनस्यवेदनीय कर्म वह कर्म है जिसका सौमनस्य विपाक त्वेन वेदनीय है (सौमनस्य विपाकत्येन वेदनीयमस्य) व्या० १०७.७] । वैभाषिक के अनुसार वह फर्म जिसमें सौमनस्य वेदनीय हैं (सौमनत्यं वेदनीयमस्मिन्) [व्या० १ संप्रयोगऽपि न दोपो विपापि ॥ अगत्याप्येतदेवं गम्येत । का पुनरत्र युक्तिदौर्मनस्य न पिपाक: च्या० १०७.६ में अगस्यापि के स्थान में अगत्या हि पाठ है]