पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/११९

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय १०५ o , किन्तु क्या उपपादुक उभय-व्यंजन हो सकता है ? हाँ, दुर्गति में। ३. रूपधातु के सत्व प्रथमतः ६ विपाकात्मक इन्द्रियों से समन्वागत होते हैं यथा कामधातु के अव्यंजन उपपादुक । ४. 'उत्तर' अर्थात् आरूप्यधातु में—यह धातु रूप (३,३)से अचं अवस्थित नहीं है किन्तु [१३३] यह उत्तर इसलिए कहलाता है क्योंकि समापत्ति की दृष्टि से यह रूपधातु से पर है : आल्प्यत्रातु को समापत्तियों की भावना रूपधातु की समापत्तियों के पश्चात होती है ; क्योंकि यह उपपत्तितः प्रधानतर है। इस धातु में मत्व, आदि में, एक विपाकात्मक इन्द्रिय अर्थात् जीवितेन्द्रिय से समन्वागत होते हैं। निरोधयत्युपरमन्नारूप्ये जीवितं उपेक्षा चव रूपेष्टी कामे दश नवाष्ट वा ।।१५।। क्रममृत्यौ तु चत्वारि शुभे सर्वत्र पंच च । नवाप्तिरन्त्यफलयोः सप्ताष्टनवभिट्टयोः ॥१६॥ हमने बताया है कि प्रतिसन्विकाल में कितनी विपाकात्मक इन्द्रियों का लाभ होता है । प्रश्न है कि मरणकाल में कितनी इन्द्रियाँ विनष्ट होती हैं । १५-१६ बी. आरूप्यधातु में म्रियमाण जीवितेन्द्रिय, मन-इन्द्रिय, उपेक्षेन्द्रिय का निरोध करता है ; रूपधातु में वह पाठ इन्द्रियों का निरोध करता है ; कामयातु में वह १०, ९ या ८ का निरोध करता है और जब क्रममृत्यु होती है तब चार का निरोध करता है। शुभ मृत्यु की अवस्था में सर्वत्र पंच इन्द्रिय और जोड़िए । १. आरूप्यधातु का सत्व मरण-काल में कारिका में निर्दिष्ट तीन इन्द्रियों का प्रहाण अन्तिम क्षण में करता है । ल्पवातु में चक्षुरादि पंचेन्द्रिय को जोड़ना चाहिए । वास्तव में सब उपपादुक समग्नेन्द्रिय के साथ उपपद्यमान होते हैं और मृत होते हैं । कामवातु में मृत्यु युगपत् होती है या क्रममृत्यु होती है। प्रथम प्रकार की मृत्यु में अव्यंजन आठ, एक व्यंजन ९, उभयव्यंजन १० इन्द्रियों का निरोध करता है । दूसरे प्रकार की मृत्यु में चार इन्द्रियों का अंतिम क्षण में निरोध होता है ; इनका पृथक् निरोव नहीं होता : कायेन्द्रिय, जीवितेन्द्रिय, मन-इन्द्रिय और उपेक्षेन्द्रिय । इन चार इन्द्रियों का निरोध एक साथ होता है । ५ निरोवयत्युपरमन्नारूप्ये जीवितं मनः । [च्या० ११२.२] उपेक्षां च (इव) रूपेऽप्टी कामे दश नवाष्ट वा॥ व्या० १११.२२, २६] क्रममृत्यौ तु चत्वारि शुभे सर्वत्र पंच च । [व्या० १११.३१, ३४ में मृत्यौ तु के स्थान में मूत्योस्तु पाठ है।] अभिधम्मसंगह, काम्पेण्डियम पृ. १६६ से तुलना कीजिए।