पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१२०

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क्योंकि जिस क्षण में योगी स्रोत-आपत्ति-फल का लाभ करता है उस क्षण में वह सदा अवा- अभिधर्मकोश २. पूर्वोक्त मरण-विधि उस मरण-चित्त की है जो क्लिष्ट या अनिवृताव्याकृत है । [१३४]यदि यह चित्त कुशल है तो तीन धातुओं में श्रद्धादि पंचाधिक को प्रक्षिप्त कीजिए। कुशल चित्त में इनका अवश्य भाव होता है। इन्द्रियप्रकरणरे में सब इन्द्रियधर्मों का, उनकी अवस्थाविशेष और उनके कारित्र- विशेष का, विचार किया गया है । अतः हमारा प्रश्न है कि श्रामण्यफल (६.५२) के लाभ में कितनी इन्द्रियाँ आवश्यक है। १६ सी डी. दो अन्त्यफल की प्राप्ति ९ इन्द्रियों से होती है। मध्य के दो फलों की प्राप्ति ७, ८ या ९ से होती है। अन्त्य फल स्रोत-आपत्ति फल और अर्हत्फल है क्योंकि यह दो फल प्रथम और अन्तिम हैं। मध्य में सकृदागामि-फल और अनागामिफल होते हैं क्योंकि यह दो फल प्रथम और अन्तिम के मध्य में होते हैं। १. स्रोत-आपत्ति फल (६.३५ सी) की प्राप्ति ९ इन्द्रियों से होती है : मन-इन्द्रिय, उपेक्षेन्द्रिय, श्रद्धादि पंचेन्द्रिय ; अनाज्ञातामाज्ञास्यामीन्द्रिय, आज्ञेन्द्रिय (२.१० ए-ची)" } [१३५] अनाज्ञातमाज्ञास्यामि आनन्तर्यमार्ग है (६.३० सी); आज्ञ विमुक्तिमार्ग है: इन दो इन्द्रियों से स्रोत-आपत्ति-फल की प्राप्ति होती है क्योंकि प्रथम क्लेश-विसंयोग (२.५५ डी १, ६.५२) की प्राप्ति का आवाहक है और द्वितीय इस प्राप्ति का संनिश्रय, भाधार २. अर्हत्वफल (६.४५) का लाभ ९ इन्द्रियों से होता है : मन-इन्द्रिय, सौमनस्य या सुख या उपेक्षेन्द्रिय, श्रद्धादि पंचेन्द्रिय, आज्ञेन्द्रिय और आज्ञातावोन्द्रिय । . 'भरण-चित्त पर ३.४२-४३ वी. देखिए । काय के किस भाग में मनोविज्ञान निरुद्ध होता २ इन्त्रियप्रकरणे। कुछ यह अर्थ देते हैं: "हम यहाँ इन्द्रियों को जो व्याख्यान दे रहे हैं उसमें दूसरों के अनुसार यह अर्थ है : “इन्द्रियस्कन्धक में व्या० ११२.१३] ज्ञानप्रस्थान के छठे ग्रंथ में [तकाकुसु, अभिधर्म लिटरेचर, पृ. ९३] । नवाप्तिरन्यफलयोः सप्ताष्टनवभिर्द्वयोः ॥ न्या० ११२. १५:११४.२] गम्य (६.४८) समापत्ति को अवस्था में होता है। इस समापत्ति में उपेक्षावेदना होती है। स्रोत-आपत्ति-फल का लाभ सत्याभिसमय के १६वें क्षण में होता है। पहले १५ आज्ञास्यामि हैं, १६ वा आज्ञ है। प्रयम क्षण आनन्तर्यमार्ग है, द्वितीय विमुक्तिमार्ग है और इसी प्रकार । किन्तु १६ वें क्षण को अपेक्षा पूर्व के १५ क्षण आनन्तर्यमार्ग समझे जासकते हैं। आनन्तर्यमार्ग पलेश मा निरोध करता है और क्लेश-विसंयोग की प्राप्ति का आवाहक है। वह चोर फा निष्कासन करता है, विमुक्तिमार्ग कपाट को बंद करता है। जापानी संपादक पहां विभाषा ९०, ११ उद्धृत करता है जहां अकाश्मीरक वाद के मानने वाले पश्चिम के आचार्यों से बचन उद्धृत किए गए हैं। ६ १