पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१४

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१७ प्राप्ति होती है। आगम तो शास्त्रज्ञों के रूप में, एवं अधिगम आचारवान् धर्म के साक्षात्कर्ता बुद्धों के रूप में लोक में सुरक्षित रहता है। इनमें अधिगम धर्म का विशेष महत्त्व है। उसी के अन्त- गंत धर्म विचय का अंग है जिसके द्वारा जीवन में वोधि पाक्षिक धर्मों का आग्रह धारण करके सर्व क्लेशों की उपशान्ति का अभ्युपाय किया जाता है (कोश ११३) । प्राचीन समय में अभिधर्म का विशाल साहित्य था। यशोमित्र ने लिखा है कि अभिवर्म शास्त्र के कर्ता इस प्रकार कहे जाते थे- ज्ञान प्रस्थान के यार्यकात्यायनी पुत्र, प्रकरणपाद के स्थ- विर वसुमित्र, विज्ञानकाय के स्थविर देवशर्मा, धर्मस्कन्ध के आर्यशारिपुत्र, प्रज्ञप्ति शास्त्र के आर्य मौद्गल्यायन, धातुकाय के पूरण, संगीतिपर्याय के महाकौष्ठिल (स्फुटार्था, पृ० १२) । किसी का मत था कि ज्ञानप्रस्थान शास्त्र ही मूल था, शेप छह उसी के अंग थे। इन सातों के चीनी अनुवाद उपलब्ध हैं। ज्ञानप्रस्थान सूत्र का आंशिक अध्ययन श्री पूर्स ने प्रकाशित किया है। परम ज्ञान या अनुत्तर ज्ञान का प्रतिपादक यही शास्त्र अभिधर्म कहलाया। कालान्तर में इन्हीं सातों में महायान का आलयविज्ञान प्रतिपादक माठवाँ शास्त्र भी जुड़ गया। वसुबन्धु ने अपने से पूर्ववर्ती सर्वास्तिवादी परम्परा के समस्त अभिधर्म शास्त्र का मथन करके कोश के रूप में अपने नये शास्त्र की रचना की। मूलग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय ६०० कारिकाओं में उपनिबद्ध किया गया। उसी पर बृहत् भाष्य स्वयं उन्होंने ही रचा। इस ग्रन्य में याठ कोशस्थान हैं जिनके विषय इस प्रकार हैं- १ धातु, २ इन्द्रिय, ३ लोकधातु, ४ कर्म, ५ अनुशय, ६ आर्यपुद्गल, ७ ज्ञान, ८ध्याना बुद्धघोष-कृत विशुद्धिमग्ग के पञ्जा विभाग में भी अभिधर्म सम्बन्धी लगभग ये ही विषय कुछ क्रमभेद से समाविष्ट थे । आचार्य भदन्त घोषक ने अभिवामृत शास्त्र नामक एत- द्विषयक अन्य की रचना की थी। उसका विषय विभाग भी वसुवन्धु कोश से कुछ क्रमभेद के साथ मिलता है। श्री शान्तिभिक्षु ने चीनी अनुवाद से पुनः उसका संस्कृत में उद्धार किया है। वसु- बन्धु का महान् अभिधर्मकोशशास्त्र भी मूल संस्कृत में नष्ट हो गया था। उसके दो चीनी अनु- वाद(परमार्थ कृत और शुआन-ब्वाङ कृत)एवं एक तिब्बती अनुवाद सुरक्षित हैं । शुआनच्चाङ के चीनी अनुवाद का ही पूर्स ने फ्रेंच में अनुवाद किया। उसीका भाचार्य जी ने हिन्दी में उल्या किया। पूरों ने तिब्बती अनुवाद के आधार पर कारिकाओं का संस्कृत में उद्धार किया था। पीछे जब यशोमित्रकृत स्फुटार्या व्याख्या प्राप्त हुई तो तुलना करने से विदित हुआ कि उन्हें कितनी सफलता मिली थी और वसुवन्धुकृत रूप उनसे कितना श्रेष्ठ था। इधर सौभाग्य से श्री राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से जो ग्रन्थराशि लाये थे उसमें अभिधर्मकोशकारिका और अभिधर्मकोशभाष्य की मूल संस्कृत प्रतियाँ मिल जाना सबसे अधिक आनन्द की वात है। अभिधर्मकोशकारिका १. BEFEO, भाग ३० (१९३०); तथा मेलांज चिनुझाए बुधोक, भाग १, पृ०७३-७४ । २. बौद्धधर्म दर्शन पृ० ३१२ की पाद टिप्पणी में आचार्य जी ने लिखा है कि अंग्रेजी अनुवाद भी उन्होंने किया था।