पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१४०

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१२६ अभिधर्मकोश ४. उपेक्षा चित्त-समता है। यह वह धर्म है जिसके योग से चित्त समभाव में अनाभोग में वर्तमान होता है । सौत्रान्तिक---यदि सर्व चित्त मनस्कार से संप्रयुक्त है जो आभोग-स्वभाव है तो सर्व कुशल चित्त उपेक्षा से जो अनाभोग-स्वभाव है कैसे संप्रयुक्त हो सकता है ? वैभापिक-हमने पहिले ही कहा है कि चित्त चैत्तों के विशेष को जानना कठिन है (दुर्ज्ञान) । सौत्रान्तिक--दुर्ज्ञान भी जाना जाता है । किन्तु यह अति दुज्ञान है कि विरोध में अविरोध हो। यह अयुक्त है कि एक ही चित्त-क्षण, आभोग और अनाभोग, सुख और दुःख इन अन्योन्य विरुद्ध चैत्तों से संप्रयुक्त हो ।' वैभाषिक --एक आलम्बन के प्रति आभोग है, अन्य आलम्बन के प्रति अनाभोग है। अतः आभोग-अनाभोग के सहभाव में अविरोध है । [१६०] सौत्रान्तिक---यदि ऐसा है तो संप्रयुक्त चैतसिक का एक ही आलम्बन नहीं होता ओर यह आपके बताए हुए संप्रयुक्त धर्मों के लक्षण [२.३४ डी) के विरुद्ध है । हमारे लिए विरोध- जातीय धर्मो का सद्भाव, यहाँ मनस्कार और उपेक्षा का, पश्चात् वितर्क और विचार का (२.३३) एकत्र नहीं होता किन्तु पर्याय से उनकी वृत्ति होती है । ५-६. ह्री और अपत्राप्य का निर्देश हम पीछे (२.३२) करेंगे । ७-८. कुशल मूलद्वय अलोभ और अद्वेष (४.८) है । तृतीय कुशलमूल अमोह प्रज्ञात्मक है : अतः यह महाभूमिकों में पूर्व ही निर्दिष्ट हो चुका है। यह कुशलमहाभूमिक नहीं कहलाता। ९. अविहिंसा अविहेठना है १२ (पृ. १७४,२)। ४ होता है। व्या० १२९.१९] प्रज्ञास्कन्ध निर्देश में उक्त है : प्रज्ञास्कन्धः कतमः । सम्पग् दृष्टिः सम्यक्संकल्प : सम्यगव्यायामः [च्या०१२९.२०] । यह संस्कारोपेक्षा है। वेदनोपेक्षा (१.१४, २.८ सी-डी) और अप्रमाणोपेक्षा (८.२९) से भिन्न है । अत्थसालिनी (३९७) में १० उपेक्षा परिगणित हैं। झानुपेक्खा का लक्षण इस प्रकार है: मज्झतलक्खणा अनाभोगरसा अव्यापारपच्चुपट्टाना.. ३ अक्षरार्थः दुनि भी जाने जा सकते हैं। किन्तु यह जानना (स्वीकार करना) कठिन है कि विरोधी धर्मों में कोई विरोध (सहभाव का असंभव होना नहीं होता : अस्ति हि नाम दुर्ज्ञान- मपि ज्ञायते । इदं तु खलु अतिदुर्ज्ञानं यद् विरोधेऽप्यविरोधः। [च्या० १२९.२७) शुआन्-चाड और जापानी संपादक की विवृतियों के अनुसार : वैभाषिक--इसमें क्या विरोध है कि मनस्कार चित्त का आभोग है और उपेक्षा चित्त का अनाभोग है ? वास्तव में हम मनस्कार और उपेक्षा को पृथक् धर्म मानते हैं। सौत्रान्तिका--तब मनस्कार और उपेक्षा का एक ही आलम्बन न होगा अथवा यह मानना पड़ेगा कि सर्व चैत (लोभ, द्वयादि) संप्रयुत्त होते हैं। हम विरोधजातीय अन्य धर्म (वितर्क, विचार) भी पाएंगे। १ पंचस्कन्धक में अमोह' कुशलमहाभूमियों में पठित है। (वास्तव में प्रज्ञा 'समोह' हो सकती है) अलोभ लोभ, उद्वेग और अनासक्ति का प्रतिपक्ष है।-अद्वेष द्वेष का प्रतिपक्ष है, अर्थात् मंत्री (८.२९) है |--अमोह मोह का प्रतिपक्ष है, सम्यक संकल्प है (६.६९) । २ पंचस्कन्धकः "अविहिंसा करणा (८.२९) है, यह विहिंसा का प्रतिपक्ष है"।