पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७२

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३५८ अभिधर्मकोश अनार्य भी अतीत-अनागत असंज़ि-समापत्ति की प्राप्ति का प्रतिलाभ नहीं करते। क्यों ? अभ्यस्त होने पर भी महाभिसंस्कार साध्य और अचित्तक होने से यह समापत्ति ४२ डी. एक अध्व में प्राप्त होती है । [२०३] न अतीत, न अनागत किन्तु एकाध्विक्र अर्थात् प्रत्युत्पन्न असंज्ञि-समापत्ति का लाभ होता है (आप्यते, लभ्यते) यथा प्रातिमोक्ष संवर का होता है। इस समापत्ति के द्वितीय क्षण में, लब्ध समापत्ति के सव उत्तर क्षणों में वह अतीत और प्रत्युत्पन्न उस समापत्ति से समन्वागत होता है यावत् वह उस समापत्ति का त्याग नहीं करता। दूसरी ओर अचैतिक होने से अना- गत भावना की प्राप्ति का लाभ असंभव है (नानागता भाव्यते) [व्या० १६०.२२] निरोधारया तथैवेयं विहारार्थ भवारना । शुभा द्विवेद्याऽनियता चार्यस्याप्या प्रयोगतः ॥४३॥ निरोव-समापति क्या है। ४३ ए. निरोधाख्या समापति तथैव है। अर्थात् निरोध-समापत्ति , आसंज्ञिक, असंशि-समापत्ति के सदृश है। यह एक धर्म है जो वित्त-चैतों का निरोध करता है। असंज्ञि-समापत्ति और निरोध-समापत्ति में क्या भेद है ? ४३ वी-डी. शान्तविहार के लिए भवाग्नज, शुभ, द्विदिपाकात्मक और अनियत: आर्य द्वारा प्रयोग से प्राप्त । १. आर्य इस समापत्ति की भावना करते हैं क्योंकि वह शास्तविहार-संज्ञापूर्वक मनसिकार से उसका ग्रहण करते है " । असंझि-समापति की भावना निःसरण । मोक्ष) संज्ञापूर्वक मन- सिकार से असंज्ञा का ग्रहण करने से होती है । २. यह भवाग्रज है अर्थात् नवसंज्ञानासंज्ञायतन (८.४} समापत्ति से आरंभ कर इसमें प्रवेश होता है जब कि असंज्ञि-समापत्ति चतुर्थध्यानभूमिक है । ३. यह शुभ है; यह न अन्याकृत है, न क्लिष्ट क्योंकि इसका समुत्थापकहेतु (४.९ वी) अनागल कुशल चित पूर्व प्राप्ति का आलम्बन है। २ निरोधसभापत्ति, संज्ञावदितनिरोधसमापत्ति (नीचे पृ. २११ देखिये) पर ६. ४३ सी-डी, ८.३३ ए (विमोक्ष), स्यावत्यु, ६.५, १५.७ देखिये । महाविभाषा, १५२, १४ में इस समापत्ति पर अनेक मत है: कुछ के विचार से यह एक द्रव्यमान है-निरोधसाक्षात्कार इसरों के मत से, ११ द्रव्य : १० महाभूमिक और चित्तनिरोध; दूसरों के मल से, २१ प्रत्यः महाभूमिक, कुशलमहाभूमिक और चित्तनिरोध. निरोधसमापत्ति, सिद्धि, ६१. २०४, २११-२१४, २४७, २६८,२८३, ४०५-४०९,७५११ निरोधाच्या तयंत्रा [पि] [ध्या० १६०.२५] ४ विहाराय भवाग्रजा शुभा द्विवेद्या नियता:प्रयोगत आप्यते ॥] शान्तविहारसंशापूर्वकेण मनसिकारेग [पा० १६०.२८] -~-विहार-समाधिविशेष । ५