पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७३

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त [२०४] ४. इसके दो प्रकार के विपाक है-उपपद्यवेदनीय या अपरपर्यायवेदनीय (४.५०) ५ | यह 'अनियत' भी है क्योंकि जिस योगी ने इस' समापत्ति का उत्पाद किया है वह दृष्टधर्म में निर्वाण का लाभ कर सकता है । इसका विपाक क्या है ? यह समापत्ति भवान के चार स्कन्ध अर्थात् भवान-भव (३.३) का उत्पाद करती है । केवल आर्य-~-पृथग्जन नहीं इसका उत्पाद करते हैं । यह उसका उत्पाद नहीं कर सकाने (१) क्योंकि यह उच्छेदभीर हैं (उच्छेदभीरुत्वात् [व्या० १६१. ७] २), (२) क्योंकि इस समापत्ति का उत्पादन केवल आर्यमार्ग के बल से होता है : वास्तव में जो आर्य दृष्ट- निर्वाण है उसकी उसमें अविमुक्ति होती है । ६. यद्यपि आर्य इसका लाभ करते हैं । तथापि इसका लाभ वैराग्यमात्र से नहीं होता। यह प्रयोगलभ्य, महाभिसंस्कारसाध्य ही है । अतीत, अनागत का लाभ नहीं होता । असंज्ञि-समापत्ति-निर्देश में इसका व्याख्यान हुआ है । बोधिलभ्या मुनर्न प्राक् चतुस्त्रिशक्षणाप्तितः कामरूपाश्रये तूर्भ निरोधास्यादित्तो नषु ॥४४॥ [२०५] ४४ ए-वी. मुनि के लिए बोधिलभ्य है, पूर्व नहीं, क्योंकि मुनि ३४ क्षण में बोधि- जय करते है। बुद्ध निरोप समापत्ति का लाभ बुद्ध होने के क्षण में अर्यात क्षयज्ञान (६.६७) बाल में करते हैं । बुद्धों का कोई प्रायोगिक कुशल नहीं है । उनके सब कुशल वैराग्य से प्रति- १ यह 'अपर पर्याय वेदनीय है यदि आर्य कामधातु में निरोव-समापत्ति का उत्पाद करता है जिसका फल भवानोत्पत्ति है किन्तु रूपधातु में उपपन्न होकर कालान्तर में भवान का लाभ कर भवान में उपपन्न होता है । [व्या १६१.१] ३ यह समापत्ति भवाग्रभूमिक है जहां रूप का अभाव होता है । पृथाजनों का विश्वास है कि इन अवस्थाओं में चित्त-चत्त का निरोघ उच्छेद है । अनि-समापति के विषय में उनको उच्छेद-भव नहीं होता पयोंकि वह चतुर्वघ्यानभूमिका है जहां रूप का सद्भाव है। वास्तव में निरोवतमापत्ति में निकायसभाग, जीवितेन्द्रियादि चित्तविप्रयुक्त संस्कार होते है किन्तु पृथग्जनों के लिये विप्रयुक्त अदृश्य हैं। व्या १६१.८] ३ दृष्टनिर्वाणस्य तदविमुक्तितः घ्या १६१.१९]-पाठभेद है जिसका अनुसरण चीनी अनुवादक करते हैं, दृष्ट्यनिर्वाणत्य. . .अर्थात् "आर्य इस समापत्ति के द्वारा, इस समा- पत्ति में, दृष्टवर्म में ही निर्वाण का लाभ चाहता है ।" दृष्ट्यमंनिर्माणस्य तदधिमक्तित: [व्या १६१.१५] । दृष्ट जन्मनि निर्वाणं दृष्टयमनिर्वाणम् । तस्य तदधिमुयिततः। तदित्यधिमुक्तिस्तदधिमुक्तिः । तेन वाभिमुक्तिस्तदपिस्तिः । तदविमुक्तेस्तदधिमक्तितः । दृष्टे जन्मन्येतनिर्वाणमित्यायंतनधिमुच्यते । + बोधिलन्या मुनेर् [न प्राक् चतुस्त्रिंशत्क्षणाप्तितः ।] [व्या १६१.३१] ६.२४ ए- बो. देखिये कयावत्यु, १.५, १८.५ से तुलना कीजिये ।