पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१७४

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अभिधर्मकोश लब्ध होते हैं : ज्यों ही उनका छन्द होता है उनको इच्छामात्र से ही गुण-समूह उद्भूत होते है ।। यह कैसे है कि भगवत् पूर्व निरोध-समापत्ति का बिना उत्पाद किये क्षयज्ञान काल में 'उभयतो- भागविमुक्त' होते हैं अर्थात् क्लेशावरण और समापत्त्यावरण (६.६४) विमुक्त होते है.? वह 'उभयतोभागविमुक्त' होते हैं मानों उन्होंने पूर्व ही इस समापत्ति का उत्पाद किया हो क्योंकि इसमें उनका वशित्व है, उसके सम्मुखीकरण की सामर्थ्य है (विभाषा, १५३.१०) । पाश्चात्यों३ का मत है कि शैक्षावस्था में बोधिसत्व पहले ही इस समापत्ति का उत्पाद करते है और पश्चात् बोधि का लाभ करते हैं । इस मत को क्यों नहीं स्वीकार करते ? यह स्थविर उपगुप्त के नेत्रीपदशास्त्र के इस वाक्य के अनुकूल होगा : "जो निरोध-समा- पत्ति का उत्पाद कर क्षयज्ञान का उत्पाद करता है उसको तथागत कहना चाहिये ।" काश्मीर वैभाषिक इसका प्रतिषेध करते हैं कि बोधिसत्व क्षयज्ञान के उत्पाद के पूर्व निरोध- समापत्ति का उत्पाद करता है। [२०६] निकाय वास्तव में स्वीकार करता है (विभापा १५३, १०-११) कि बोधिसत्व ३४ क्षण में सत्याभिसमय (६.२७) के १६ चित्त-क्षणों में और भवान-( नवसंज्ञाना- संज्ञायतन)वैराग्य के १८क्षणों में अर्थात् ९ प्रकार के भावाग्निक क्लेशों के प्रहाण के लिये आनन्त- यंमार्ग और ९ विमुक्तिमार्ग (६.४४) में बोधि का लाभ करता है । १८ वाँ क्षण क्षयज्ञान है । ---यह ३४ क्षण पर्याप्त है क्योंकि 'सत्याभिसमय' में प्रवेश करने के पूर्व वोधिसत्व पृथग्जनत्व की अवस्था में (३.४१) लौकिक मार्ग द्वारा भवान से अन्य सर्व भूमियों से विरक्त हो चुका है, उसे अधोभूमिक क्लेशों का पुन: प्रहाण नहीं करना है ।--१८ क्षणों का एक मार्ग है जिसमें आर्य भिन्न स्वभाव का चित्त अर्थात् लौकिक, सासव चित्त उत्पन्न नहीं करता यथा निरोध-समापत्ति में समापन्न होने का चित्त । अतः बोधिसत्व शैक्षावस्था में अर्थात् अर्हत होने के पूर्व सत्याभिसमय और भवान-वैराग्य के १८ वें क्षण के मध्य में निरोध-समापत्ति का उत्पाद नहीं करता ) वहिर्देशक' कहते हैं : इसमें क्या दोष है यदि बोधिसत्व इस सासवचित्त का उत्पाद करते २ व्याख्या स्तोत्रकार मातृचेट का एक श्लोक उद्धृत करती हैं (वर्णनार्हवर्णन, ११८: एफ० डब्ल्यू. टामस, इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्ब ३२, पृ० ३४५) :न ते प्रायोगिक किचित् कुशलं कुशलानुग । [व्या १६२.५] यो पाव नामसंगीति में उद्धृत हैं--व्यवसायद्वितीयेन प्राप्तं पदमनुत्तरम् । 3 जापानी संपादक कोश की प्राचीन टीकाओं में दिये विविध अर्थ उद्धृत करते हैं : 'पाश्चात्य गान्धार के सर्वास्तिवादी या सौत्रान्तिक या इन्धु देश के आचार्य है। यह पाश्चात्य कहलाते हैं क्योंकि कश्मीर मण्डल से पश्चिम के हैं। यह बहिर्देशक कहलाते हैं क्योंकि कश्मीर के बाहर के हैं।-नीचे, पृ० २०६, एन० १ देखिये। १ निरोबसमापत्तिमुत्पाद्य क्षयज्ञानमुत्पादयतीति वक्तव्यं तथागत इति [व्या १६२.१९] । इन्य देश के आचार्यों का वही मत है जो पाश्चात्यों का है । ६. १७६ देखिये। 1