पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१८६

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१७२ अभिधर्मकोश धमिल, उत्तर, गंगिल, वणिकपुत्र यशकुमार, जीवकादि, चरमभाविक बोधिसत्व, बोधिसत्व की माता जब वोधिसत्व गर्भ में है, चक्रवर्तिन, चक्रवर्तिमाता जब चक्रवत्तिन् गर्भ में है। आक्षेप--सूत्र शारिपुत्र के एक प्रश्न का और भगवत् के दिये हुए विसर्जन का उल्लेख करता है : "भदन्त ! वह कौन सत्व हैं जिनके आत्मभाव-प्रतिलम्भ का मारण न अपने से होता है, न पर से ?"--"शारिपुत्र ! नैक्संज्ञानासंज्ञायतन में उपपन्न सत्त्व" अर्थात् आरूप्यधातु के सर्वोच्च स्थान भवान में उपपन्न !-इस सूत्र के होते आप कैसे कह सकते है कि रूपधातु [२२१] और आरूप्यधातु के सव सत्वों के आत्मभाव-प्रतिलम्भ की आत्मसंचेतना और परसंचेतना दोनों नहीं होती ? निकाय (विभाषा, १५१, १२) निरूपण करता है : रूपधातु के सत्व और आरूप्यधातु की प्रथम तीन भूमियों के सत्वों के आत्मभाव-प्रतिलम्भ की आत्मसंचेतना होती है अर्थात् स्वभूमिक मार्ग से उनका मारण होता है, परसंचेतना भी होती है अर्थात् उपरिभमि (६.४८, ८.२२) सामन्तक के मार्ग से उनका मारण होता है। किन्तु आरूप्यधातु के उच्चतम स्थान में स्वभूमिक आर्यमार्ग और उपरि भूमिक आर्यमार्ग दोनों नहीं होते। अतः वहाँ के सत्वों के आत्मभाव-प्रतिलम्भ की न आत्मसंचेतना होती है और न परसंचेतना। हमको उत्तर दुर्वल प्रतीत होता है । वास्तव में आरूप्यधातु की अन्तिम भूमि में परभूमिक (आकिंचन्यायतन ८.२०) आर्यमार्ग का अभ्यास हो सकता है । अतः एक दूसरा व्याख्यान स्वीकार करना चाहिये (विभाषा, वहीं)। शारिपुत्र के प्रश्न के उत्तर में बुद्ध नवसंज्ञानासंज्ञायतन के सत्वों का उल्लेख कर रूपधातु और आरूप्यधातु के सब सत्वों को प्रज्ञप्त करना चाहते हैं क्योंकि पर्यन्त के ग्रहण से उसके आदि का संप्रत्यय होता है। हम सिद्ध कर सकते हैं कि यह अन्यत्र भी देखा जाता है । कभी प्रवचन आदि से उसके पर्यन्त का ग्रहण करता है यथा "प्रथम सुखोपपत्ति (३.७२), तद्यथा ब्रह्मकायिक देव ।" पर्यन्तग्रहण से "ब्रह्मकायिक, ब्रह्मपुरोहित, महाब्रह्म" प्रथम सुखोपपत्ति हैं। कभी प्रवचन पर्यन्त से उसके आदि का ग्रहण करता है : "द्वितीय सुखोपपत्ति, तद्यथा आभास्वर देव ।" आदिग्रहण से "परीताभ, अप्रमाणाभ और आभास्वर" द्वितीय सुखोपपत्ति हैं । किन्तु इस व्याख्यान का विरोध हो सकता है । इन दो पूर्वोक्त वचनों में तद्यथा' शब्द पाया जाता है जो दृष्टान्तवाचक है । अनुवाद 'अर्थात्' न होना चाहिये किन्तु 'यथा होना चाहिये। दृष्टान्तों का यह धर्म है कि उस प्रकार के एक का निर्देश करने से सर्व शेष का संप्रत्यय होता है । और हम यह स्वीकार करते हैं किसुखोपपत्तियों पर जो दो वचन है उनमें प्रवचन आदि या पर्यन्त का निर्देश कर सूची को सव आख्याओं को प्रशप्त करता है । किन्तु भगवत् ने शारिपुत्र को जो उत्तर दिया उसमें 'तद्यथा' शब्द नहीं है । 3 व्याख्या का यह पाठ है-तिब्बती : चू लेन B तिचती:म्छोग ऊन ५ चीनी भाषान्तर में गंजिल है। गंगिक को असफल आत्महत्या, अवदानशतक, ९८॥