पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१८७

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द्वितीय कोशस्थान : चित्त-विप्रयुक्त १७३ ? १ ... [२२२] हम कहते हैं कि 'तद्यथा' शब्द दृष्टान्तवाचक नहीं है । यह अनुपसंहार है क्योंकि हम इसका प्रयोग उन सूत्रों में भी देखते हैं जो पूर्ण सूची देते हैं : “नानात्वकाय, नानात्व-संज्ञी रूपी सत्व तद्यथा मनुष्य और एक देव..." (३.६) । अतः 'तद्यथा' शब्द उपदर्शनार्थ है । अतः भगवत् शारिपुत्र को दिये हुए अपने उत्तर में पर्यन्तग्रहण से उसके आदि का संप्रत्यय कराते हैं अर्थात् साकल्येन दो ऊर्ध्व धातुओं का उल्लेख करना चाहते हैं ।' संस्कृत धर्म (संस्कृतस्य) के क्या लक्षण हैं ? ४५ सी-डी. लक्षण यह है--जाति, जरा, स्थिति, अनित्यता २ यह चार धर्म-जाति, जरा, स्थिति, अनित्यता--संस्कृत के लक्षण हैं। जिस धर्म में यह लक्षण पाये जाते हैं वह संस्कृत है, जिसमें यह नहीं पाये जाते वह असंस्कृत है। जाति संस्कृतों का उत्पादन करती है (उत्पादयति); स्थिति उनकी स्थापना करती है (स्थापयति); जरा उनका ह्रास करती है; अनित्यता उनका विनाश करती है । [२२३] संस्कृत के ३ 'संस्कृत लक्षणों की शिक्षा क्या सूत्र में नहीं है ? वास्तव में सूत्र में उक्त है : हे भिक्षुओ! संस्कृत के यह तीन संस्कृत लक्षण हैं। यह तीन क्या हैं ? संस्कृत का उत्पाद प्रज्ञात होता है, व्यय भी प्रज्ञात होता है और उसका स्थित्यन्यथात्व भी प्रज्ञात होता है।" वैभाषिक-सूत्र को चतुर्थ लक्षण भी कहना चाहिये था। जो लक्षण सूत्र में उक्त नहीं है वह स्थिति है। सच तो यह है कि स्थित्यन्यथात्व समासान्त पद में 'स्थिति' शब्द का इसने प्रयोग भगवत् के विसर्जन में 'तद्यथा' शब्द का न होना यह नहीं सिद्ध करता कि इस विसर्जन का अक्ष- रार्थ लेना चाहिये। २ [लक्षणानि. जाति रास्थितिरनित्यता] । तिब्बती भाषान्तर : लक्षणान्येव । परमार्थ : "पुनः संस्कृत के लक्षण हैं. शुआन-चाड : "लक्षण अर्थात् संस्कृत की जाति, स्थिति, जरा, अनित्यता।" विभाषा, ३८,१२; अभिधर्महदय (नैजियो, १२८८), २.१० १.७ ए-बी में संस्कृत का तात्कालिक लक्षण बताया गया है। लक्षणानिपुनर्जातिः....मध्यम ति, ५४६, मध्यमकावतार, १९३ : "अभिधर्म के अनुसार चार सहभू हैं।"-षड्दर्शनसंग्रह के अनुसार साम्मितीयों का यह वाद है : चतुःक्षणिक वस्तु, जातिजनयति, स्थितिः स्थापयति, जरा जरयति, विनाशो विनाशयति । १ विपर्ययादसंस्कृत इति यत्रतानि न भवन्ति सोऽसंस्कृत इति। [व्या १७१.२३] ।--किन्तु क्या यह नहीं कह सकते कि स्थिति असंस्कृत का एक लक्षण है ? नहीं। लक्षण से द्रव्यान्तररूप इष्ट हैं। यह लक्षण विशेषित धर्म से अन्य है। यह इस धर्म को जाति, स्थिति, जरा और व्यय में हेतु हैं। असंस्कृत की स्थिति होती है किन्तु इसका स्थितिलक्षण नहीं होता, नीचे पृ.२२४, पंक्ति ५ देखिये । यह निलक्षणसूत्र है (नीचे पृ० २२७ पंक्ति ११ देखिये)-संयुक्तागम, १२, २१; अंगु- तर, १.१५२: तीणि मानि भिक्खवे संखतस्स संखतलक्खणानि । कत्तमानि तोणि ! उप्पादों पञ्चायति वयो पञ्जायति ठितस्स अज्ञायत्तं पञ्जायति।--संस्कृत पाठ इस प्रकार है: स्थित्यन्ययात्व (मध्यमकवृत्ति, पृ.१४५) कथावत्यु, अनुवाद, पृ० ५५: ठितानं माथत्त । अन्यथाभाव पर संयुत्त, २.२७४---अभिधम्म केवल तीन लक्षण मानता है। कुछ आचार्य स्थिति को भी छोड़ देते हैं (कथावत्यु, अनुवाद, टिप्पणी पृ०,३७४) । विज्ञानवाद के चार लक्षग, बोधिसत्वभूमि, १, १७, ६१५ (मध्यमकवृत्ति, पृ.५४६) । 3 १