पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२०३

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द्वितीय कोशस्थात: चित्त-विप्रयुक्त हम संक्षेप में अन्य अनुक्त चित्तविप्रयुक्त धर्मों का (२.३५) लक्षण बतावेंगे। ४७ डी-४८ बी. इसी प्रकार सभागता है जो विपाक भी है । यह वैधातुकी है । [२४४] 'तथा' अर्थात् व्यंजन, नाम और पद के तुल्य सभागता प्रथम दो धातुनों में प्रति- संयुक्त है, सत्वाख्य है, नंप्यन्दिको है, अनिवृताव्याकृत है । किन्तु सभागता केवल नेप्यन्दिको नहीं है : यह चिपाकज भी है । यह केवल प्रथम दो घातुओं में प्रतिसंयुक्त नहीं है : यह तृतीय धातु में भी प्रतिसंयुक्त है । ४८ वी. प्राप्ति दो प्रकार की हैं।' यह नेप्यन्दिको और विपाकज हैं। ४८ सी. लक्षण भी। जात्यादिलक्षण प्राप्ति के समान दो प्रकार के है। ४८ सी. डी. समापत्ति और अप्राप्ति नैप्यन्दिकी है। दो समापत्ति और अप्राप्ति केवल नैप्यन्दिकी है । इनकी धात्वाप्तता, सत्यासत्वाख्यता और कुशलाकुशलाव्यातता का व्यापमान पूर्व ही चुका है। सब संस्कृतों के लक्षण होते हैं । अतः वह रात्वान्य और असत्याम्च्य हैं। -भासनिक और जीवित [आयुप्] के लिये २.४१ डी और ४५ ए (६.१ ए) देखिये। ५. हेतु (४९-५५ वी), फल (५५ सी-६१ बो), प्रत्यय (६१ सो-७३) हमने देखा है (२.४६ सी डी) कि जन्य धर्मों को जनित करने के लिये जाति हेतु और प्रत्ययों के सामन्य की अपेक्षा करती है । यह हेतु-प्रत्यय क्या है ?' कारणं सहभूश्चव सभागः संप्रयुक्तकः । सर्वनगो विपाकास्यः पवियो हेतुरिप्यते ॥४९।। ५ तया। समागता विपाकोऽपि चातुको व्या १८६.१५] । आप्तयो द्विधा । [व्या १८६.२६] शुमान चाड शोचते है :प्राप्ति तीन प्रकार की हैः क्षणित (१.३८), नंम्पन्दिर, विपाफज । [लक्षणान्यपि '. निप्यन्दः समापत्यसमन्वयाः ॥] व्यारा में निम्न सूचनाएं हैं : ए. हेतु और प्रत्यय में कोई प्रतिविशेष नहीं है पोंकि भगयन् कहा है : द्वी हेतू द्वौ प्रत्ययो सम्बादप्टरसादाप । पातमो हो । परताय घोबोम्यान च योनिशी मनस्फार इति । (अंगुतर १.८) हुने भिराये पश्यया मम्नादिहिया उप्पादाय... .परतो च घोसो योनिसो च मनतिकारी) यो. हेतु, प्रत्यर, निदान, कारण, निमित, लिंग, उपनिषद यह पर्याय है। सो. हेतु और प्रत्यय का पपा निर्देश पलों है ?-माफि हेनुनिर्देश में अविश्वनाम, गहत्य, सदात्य आदि (२.४९) अविशेष फा बारमान है । प्रनयनिर्देा] समात्य सादि (२.६२) अपर भयिदोष का व्याख्यान है । [या १८८.१३ हेतु और प्रत्यय पर सिद्धि-कोर,४.१८०,१७६ में हेतु और प्रत्यय का पिन्य स्पष्ट ।