पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२०७

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द्वितीय कोशस्थान : हेतु सहभूहेतु है किन्तु इसका उनके साथ अन्योन्यफलसंवन्ध नहीं है : क्योंकि अनुलक्षण अपने धर्म के सहभूहेतु नहीं हैं। लक्षण में इतना बढ़ाना है।' चैत्ता द्वौ संवरौ तेषां चेतसो लक्षणानि च । चित्तानुवतिनः कालफलादिशुभतादिभिः ॥५१॥ किन धर्मों को 'चित्तानुपरिवर्ती' कहते हैं ? ५१ ए-सी. चैत्त, दो संवर, चैत्त-संवर द्वय के और चित्त के लक्षण चित्तानुपरिवर्ती हैं। सब चित्तसंप्रयुक्तधर्म (२.२४) ध्यानसंवर और अनास्रवसंवर (४.१७ डी), इन सबके और चित्त के जात्यादि लक्षण (२.४५ वो) । ५१ डी. काल, फलादि और शुभादि की दृष्टि से । अनुवर्ती चित्त के संप्रयुक्त हैं : १. कालतः : चित्त के साथ इनका एकोत्पाद, एक स्थिति, एक निरोध है। यह और चित्त एक अध्व में पतित हैं। जब हम कहते हैं "एकोत्पाद....' तब 'एक' शब्द का ग्रहण 'सह' के अर्थ में होता है [२५०] [व्या १९२.११] । अनुवर्ती के उत्पाद, स्थिति और निरोध का काल वही है जो चित्त का है किन्तु उनकी उत्पत्ति पृथक् है। अनुत्पत्तिधर्मी चित्त का उत्पाद, स्थिति, निरोध नहीं होता : इसी प्रकार उनके अनुवतियों का। इसीलिये यह उपसंख्यान' है : “अनुवर्ती का वही अध्व है जो चित्त का है।" [अनुत्पत्तिक धर्मी चित्त उस क्षण तक अनागत है जिस क्षण में वह उत्पन्न होगा यदि उसे उत्पन्न होना है : तव उसके अनुवर्ती अनागत होते हैं। यह उस क्षण से अतीत है जिस क्षण में यह निरुद्ध होता यदि इसकी उत्पत्ति होती : उसके अनुवर्ती तव अतीत हैं।' २. फलादितः यहाँ फल पुरुषकारफल (२.५८ ए-बी) और विसंयोगफल (२.५७ डी) है। 'आदि' से विपाकफल (२.५७ ए) और निष्यन्दफल (२.५७ सी) का ग्रहण होता एक फल, एक विपाक, एक निष्यन्द से वह चित्त का अनुपरिवर्तन करते हैं : 'एक' 'संख्यान', 'साधारण' के अर्थ में है। ३. शुभादितः--जिस चित्त का वह अनुपरिर्तन करते हैं उसी के सदृश अनुवर्ती कुशल, अकुशल, अव्याकृत होते हैं । उपसंख्यानकरणं च महाशास्त्रताप्रदर्शनार्थम्, सोपसंख्यानं हि व्याकरणादि महाशास्त्रं ३ चैत्ता द्वौ संवरौ तेषां चेतसो लक्षणानि च । चित्तानुत्तिनः दृश्यते [व्या १९१.२१] । कालफलादिशुभतादिभिः ।। [व्या १९२.१] इस परिच्छेद का पूर्वभाग व्याख्या के अनुसार है। २ ४ १