पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय कोशस्थान हेतु २०७ [२७०] . . . .एवमादि यावत् : अनागत सत्कायदृष्टि की तथा तत्संप्रयुक्त की जाति- जरा-स्थिति-अनित्यता को स्थापित कर अन्य सर्व क्लिष्ट दुःखसत्य ।" आक्षेप–यदि अकुशल अव्याकृतहेतुक हों, केवल अकुशलहेतुक न हों, तो इस प्रज्ञप्ति- भाष्य का व्याख्यान कैसे करना चाहिये ? "क्या कोई अकुशलधर्म है जो केवल अकुशल- हेतुक हो ?--हाँ । प्रथमतः क्लिष्टचेतना जिसका संमुखीभाव कामवैराग्य से परिहीयमाण आर्य-पुद्गल करता है । उत्तर-दर्शनप्रहातव्य अव्याकृत धर्म इस अकुशल चेतना के सर्वत्रगहेतु हैं। यदि प्रज्ञप्ति में यह उक्त नहीं है तो इसका कारण यह है कि प्रनप्ति की अभिसन्धि केवल अप्रहीण हेतु से है। [२७१] ५४ सी-डी. अकुशल धर्म और कुशल सास्रव धर्म विपाकहेतु हैं।' १. अकुशल धर्म जो अवश्य सास्रव हैं और कुशल सानव धर्म केवल विपाकहेतु हैं क्योंकि इनकी विपक्ति की प्रकृति है (विपाकधर्मत्वात् =विपक्तिप्रकृतित्वात् [व्या २११. १६]) । अव्याकृत धर्म विपाकहेतु नहीं हैं क्योंकि वह दुर्वल हैं। यथा पूतिबोज अभिष्यन्दित होने पर भी अंकुरोत्पत्ति में हेतु नहीं होते । १ २ 11 परमार्थ में 'अनागत' शब्द नहीं है और इसमें सन्देह नहीं है कि यह मूल में भी नहीं है। ऊपर पृ० २५२ देखिये। व्याख्या के अनुसार मूल में है : इदं हि प्रज्ञप्तिभाष्यम्... --शुआन्-चांड का अनुवाद : "प्रज्ञप्तिपादशास्त्र का व्याख्यान कैसे करना चाहिये।" क्योंकि "प्रज्ञप्ति के इस भाष्य" से अभिप्राय "उस व्याख्यान से है जिसे हम प्रज्ञप्ति में पढ़ते हैं।"---कर्मप्रज्ञप्ति, अध्याय ९. (एम डीओ, ६३ पृ० २२९वी-२३६ ए) के तिब्बती भाषान्तर फो देखिये :६१ क्या कोई अतीत चेतना है जो अत्तीत हेतु से उत्पन्न होती है, अनागत, प्रत्युत्पन्न हेतु से नहीं?.... २. क्या कोई कुशल धर्म हैं जो कुशल हेतुओं से उत्पन्न होते हैं ? ....क्या कोई अव्याकृत धर्म हैं जो अकुशल हेतुओं से उत्पन्न होते हैं ? हाँ। (१) जो धर्म अकुशल कर्म के विपाक हैं। (२) सत्कायदृष्टि और अन्तग्राहदृष्टि से संप्रयुक्त कामावचर धर्म । ३. क्या कोई कुशल धर्म है जो केवल कुशल हेतुओं से उत्पन्न होते हैं ? हाँ। बोध्यंगों से संप्रयुक्त चेतना क्या कोई अकुशल धर्म हैं जो केवल अकुशल हेतुओं से उत्पन्न होते हैं ? जे० तकाकुसु (जे० पी० टी० एस० १९०५ पृ०७७) से हमको ज्ञात हुआ कि चीनी भाषा में कर्मप्रज्ञप्ति अब नहीं हैं। नैजियो १३१७ में कारणप्रज्ञप्ति है। नैञ्जियो १२९७ में लोक- प्रजन्ति के सदृश एक ग्रन्थ है। कास्मालाजी बुद्धोक पृ० २९५-३५० में इन दो प्रज्ञप्तियों का संक्षेप मिलेगा। स्यात्। आर्यपुद्गलः कायवैराग्यात् परिहीयमाणो यां तत्प्रथमतः क्लिष्टां चेतना संमुखीकरोति [ब्या २११.४]--"कायवराग्य से परिहाणि के काल में आर्यपुद्गल को अकुशल चेतना सहभूहेतु और संप्रयुक्तकहेतु से केवल अकुशलहेतुक होती है। क्योंकि आर्य की सत्कायदृष्टि और अन्तग्राहदृष्टि प्रहीण हैं इसलिये ये अव्याकृतहेतुक नहीं है" : चोदक का यह निरूपण । विपाकहेतुरशुभाः कुशलाश्चैव सालवाः । अव्याकृतवर्मों में स्वशक्ति का अभाव होता है : अनास्त्रव धर्मों में सहकारिकारण नहीं होता। -३.३६ बी देखिये। ३