पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२१

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अभिषमकोश अनास्रव धर्म विपाकहेतु नहीं हैं क्योंकि वह तृष्णा से अभिष्यन्दित नहीं हैं । यथा सार- बीज जल से अभिष्यन्दित न होने पर अंकुर की अभिनिवृत्ति नहीं करते । पुनः अनास्रव धर्म किसी धातु में प्रतिसंयुक्त नहीं हैं : तज्जनित विपाकफल किस धातु में प्रतिसंयुक्त होगा? जो धर्म अव्याकृत और अनास्रव नहीं हैं वह उभय प्रकार से अर्थात् स्वबल और तृष्णाभि- ष्यन्द से अन्वित होते हैं और विपाक को निर्वृत्त करते हैं। यथा अभिष्यन्दित सारवीज । २. आक्षेप—'विपाकहेतु' शब्द का क्या अर्थ है ? इस समासान्त पद के दो अर्थों में से चुनाव करना है : विपाकहेतु का अर्थ या तो विपाक का हेतु' है या 'विपाक एव हेतु' है। पहले अर्थ में 'अ' (घम्) प्रत्यय भावसाधन है : विपाक (=विपक्ति) वि-पच् धातु से इंगित क्रिया का फल है। दूसरे अर्थ में 'अ' प्रत्यय कर्मसाधन है : विपाक वह है जो विपच्यमान होता है (विपच्यते) अर्थात् फलकालप्राप्त कर्म ।--आप इनमें से कौन अर्थ स्वीकार करते हैं ? यदि आप पहले अर्थ को स्वीकार करते हैं तो आप इस वचन को (ज्ञानप्रस्थान, ११, ९) कैसे युक्त सिद्ध करते हैं : "चक्षु विपाक से उत्पन्न होता है (विपाकजं चक्षुः)?" [२७२] यदि आप दूसरे अर्थ का परिग्रह करते हैं तो "कर्मजो विपाक :" इस पद को आप कैसे सिद्ध करते हैं ? हमने पूर्व (१.३७) कहा है कि विपाका शब्द के उभय अर्थ युक्त हैं। जव फल की विवक्षा होती है तब विपाक शब्द का परिग्रह पहले अर्थ में होना चाहिये । अर्थ यह है : परिणाम, विपाक । "चक्षु विपाकज है" इस वचन को इस अर्थ में ग्रहण करना चाहिये : "चक्षु विपाकहेतु से उत्पन्न होता है।" ३. 'वि-पाक' इस समास का क्या अर्थ है ? "वि' उपसर्ग 'भेद' के अर्थ में है । विपाक वह पाक है जो स्वहेतु से विसदृश है।' २ महाव्युत्पत्ति, २४५, १८१ । सिद्धि, ४८८. । यहाँ शुआन-चाङ कुछ सूचनाएं देते हैं जो परमार्थ में नहीं हैं: वैभाषिकों के अनुसार 'वि' उपसर्ग भेदज्ञापक है : 'विपाक' का अर्थ है "विसदृश पाक' (महाव्युत्पत्ति, २४५, १८२) । अर्थात् : केवल विपाकहेतु. एक विसदृश पाक हो प्रदान करता है। सहभू, संप्रयुक्तक, सभाग, सर्वत्रगहेतु के पाक सदृश हो (कुशल, अकुशल, अव्याकृत) होते हैं। कारणहेतु का फल सदृश या विसदृश होता है। केवल विपाकहेतु नित्य विसदृश फल देता है। क्योंकि विपाकहेतु कभी अव्याकृत नहीं होता और उसका फल सदा अव्याहत होता है। [सौत्रान्तिकों के अनुसार] दो अवस्थाओं में फल 'विपाक' की संज्ञा प्राप्त करता है : इसे सन्तानपरिणामविशेष से उत्पन्न होना चाहिये। (ऊपर पृ.१८५ देखिये) । इसे अधिमात्र या न्यून हेतुवल के कारण दीर्घ या अल्प काल तक अवस्यान करना चाहिये। किन्तु सहभू और संप्रयुक्तक इन दो हेतुओं से निवृत्त फल पहली अवस्या के नहीं होते क्योंकि यह हेतु एक ही फाल में अपने फल का आक्षेप और परिसमाप्ति करते हैं (२.५९); और कारण सभाग, सर्वत्रग इन तीन हेतुओं से निवृत्त फल दूसरो अवस्था फे नहीं होतेः क्योंकि संसार