पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२४८

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द्वितीय कोशस्वान: प्रत्यय २३५ 1 ६३ ए-वी. निरुध्यमान धर्म में दो हेतु कारित्र करते हैं। 'निरुध्यमान' का अर्थ 'प्रत्युत्पन्न है। वर्तमान धर्म को 'निरुध्यमान' कहते हैं क्योंकि उत्पन्न होकर यह स्वनिरोधाभिमुख होता है। वर्तमान धर्म में सहभूहेतु (२.५० वी) और संप्रयुक्तकहेतु (५३ सी) अपना कारित्र करते हैं (कारित्रं करोति) क्योंकि वह सहोत्पन्न धर्म में अपना कारित्र करते हैं।' [३०९] ६३ वी-सी. तीन, जायनान धर्म में। जायमान धर्म अर्थात् अनागत धर्म क्योंकि अनागत धर्म अनुत्पन्न होने से उत्पादाभिमुख है। तीन इष्ट हेतु सभागहेतु (२.५२ ए), सर्वत्रगहेतु (५४ ए) और विपाकहेतु (५४ सो) हैं। अन्य प्रत्ययों के संवन्व में । ६३ सी-डी. अन्य दो प्रत्यय, विपर्यय रूप में। प्रत्ययों में समनन्तरप्रत्यय पूर्व उक्त है : यह तीन हेतुओं के तुल्य जायमान धर्म में अपना कारिज करता है क्योंकि एक क्षण के चित्त-चैत्त उत्पन्न चित्त-चैत्तों को अवकाश दान करते हैं मालम्बनप्रन्यय पश्चात् उक्त है : यह दो हेतुओं के तुल्य निरुध्यमान धर्म में अपना कारित्र करता है। यह निरुध्यमान धर्म चित्त-चत्त है; यह आलम्बक है जो निरुध्यमान अर्थात् वर्तमान हो वर्तमान आलम्बान का ग्रहण करते हैं । अविपतिप्रत्यय का कारित्र केवल इतना है कि यह अनावरणभाव से अवस्थान करता है (अनावरणभावेन.. अवस्थानम्) : यह वर्तमान, अतीत, अनागत धर्म में आवरण नहीं करता। चतुभिश्चित्तचत्ता हि समापत्तिद्वयं त्रिभिः । द्वाभ्यामन्ये तु जायन्ते नेश्वरादेः क्रमादिभिः ॥६४॥ विविध प्रकार के धर्म कितने प्रत्ययों के कारण उत्पन्न होते हैं ? ६४ ए. चित्त और चैत्त चार प्रत्ययों से उत्पन्न होते है ।' १. हेतुप्रत्यय, ५ हेतु; २. सननन्तरप्रत्यय, अन्य वित्त-वैत्तों से अव्यवहित उत्पन्न, [३१०] पूर्व चित्त और चत्त; ३. मालम्बनप्रत्यय, रूपादि पंच आलम्बन अथवा मनोविज्ञान के लिये सर्वधर्म ; ४. अधिपतिप्रत्यय, जायमान चित्त-नैत्तों को वजित कर सब धर्म । ६४ वी. दो समापत्ति, तीन के कारण ।' निरुध्यमाने कारिन ही हेतू कुरुतः । विभापा, ३६, ७ के अनुसार । शुआन्-वाळ : "क्योंकि उनके कारण सहभूफल कारित्र ते समन्वागत होता है।" मयः । जायमाने ततोऽन्यौ तु प्रत्ययो तद्विपर्ययात् ॥ चतुभिश्चित्तचंता हि-अभिधर्महृदय, २.१७ से तुलना कीजिये । 'समापत्तिद्वयं त्रिनिः । २ .