पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२६

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश 'विसंयोग' से भिन्न 'निरोध' जो अनागत धर्मों के उत्पाद में अत्यन्त विघ्न है अप्रतिसंख्या-निरोध है। इसकी यह संज्ञा इसलिए पड़ी क्योंकि इसकी प्राप्ति सत्याभिसमय से नहीं होती, प्रत्यय-वैकल्य से होती है। यथा, जव चक्षुरिन्द्रिय और मन-इन्द्रिय एक रूप में व्यासक्त होते हैं तव अन्य रूप, शब्द, गन्ध, रस और स्प्रप्टव्य प्रत्युत्पन्न अध्व का अतिक्रम कर अतीत अध्व में प्रतिपन्न होते हैं। इससे यह परिणाम निकलता है कि चक्षुर्विज्ञानादि पांच विज्ञानकाय जिनका आलम्बन अन्य रूप, शब्द, गन्ध, रस और स्प्रष्टव्य हो सकते थे, उत्पन्न नहीं हो सकते। क्योंकि विज्ञान- काय अतीत विषय के ग्रहण में, चाहे वह स्वालम्बन ही क्यों न हो, समर्थ नहीं होते। अतः पूर्वोक्त विज्ञानों के उत्पाद में अत्यन्त विघ्न होता है क्योंकि प्रत्यय-वैकल्य है। इस निर्देश में चतुष्कोटि है (विभाषा ३२, ६):- १ केवल अतीत, प्रत्युत्पन्न, उत्पत्तिधर्मा सानव धर्मो का प्रतिसंख्यानिरोध; २ केवल अनुत्पत्तिधर्मा अनास्त्रव संस्कृत धर्मो का अप्रतिसंख्यानिरोध; ३ अनुत्पत्तिधर्मा सास्रव धर्मों का प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्या-निरोध; ४ अतीत, प्रत्युत्पन्न और उत्पत्तिधर्मा अनास्रव धर्मो का न प्रतिसंख्यानिरोध, न अप्रति- ‘संख्यानिरोध। ३ [११] ते पुनः संस्कृता धर्मा रूपादिस्कन्धपंचकम् । त एवाऽध्वा कथावस्तु सनिःसाराः सवस्तुकाः ॥७॥ 3 २ विभाषा, ३२,५- कथावत्यु, २.११ के अनुसार महिसासक (वैसिलीफ पृ.२८२) और अंचक पटिसंखानिरोध और अपटिसंखानिरोध में भेद करते हैं। शंकर २.२, २२ में दो निरोषों का विचार करते हैं (एलबम कर्न १११ देखिए) । वह अप्रतिसंख्यानिरोध और अनित्यतानिरोध को (१.२० ए-ची) एक दूसरे से मिला जुला देते हैं। यह चतुष्कोटि दो विषयों पर आश्रित है: १. सास्त्रद धर्मों का, चाहे जिस किसी अध्व के वह हों, चाहे उत्पत्तिधर्मा हों या अनुत्पत्तिवर्मा, प्रतिसंख्यानिरोध (विसंयोग, वैराग्य) हो सकता है। २. सर्व अनास्लव और सास्रव धर्मों का, जो अनुत्पत्तिधर्मा हैं, अप्रतिसंख्या- निरोध होता है। अनागतधर्मों का अस्तित्व है। वह उत्पन्न होंगे यदि प्रत्यय उनको अना- गत से प्रत्युत्पन्न अध्व में आकृष्ट करेंगे। वह उत्पन्न न होंगे यदि उनको अप्रतिसंख्यानिरोध का लाभ होगा। यथा आर्य एक काल में तिर्यक् योनि में पुनः अनुत्पन्न होने का सामर्थ्य प्राप्त करता है। वह तिर्यक् योनि के अप्रतिसंख्यानिरोध का लाभ करता है जो अब से उसके लिए 'अनुत्पत्तिधर्मा' है। भगवत् स्रोतापन्न पुद्गल के विषय में कहते हैं: "इसके नरक, तिर्यक्, प्रेतभव निरुद्ध हैं।" (व्याख्या १८.१४) (संयुत्त, ५.३५६ से तुलना कीजिए :-खोणनिरयो खीणतिरछान- योनिको ) अप्रतिसंख्यांनिरोष एक धर्मविशेष है जो अमुक अमुक धर्म के उत्पाद का उसमें नियत रोध करता है जिसमें उसको प्राप्ति होती है। यह अत्यन्त अनु- त्पाद प्रत्यय-वैकल्यमात्र से नहीं होता क्योंकि यदि पुनः प्रत्ययों का किसी दिन साग्निध्य होगा तो धर्म की उत्पत्ति का प्रसंग होगा । अतः अप्रतिसंख्यानिरोध की प्राप्ति से तज्जातीय प्रत्यय-सान्निध्य और उत्पत्ति का नियत रोष होता है। २.५५ सी-डी और ५.२४ देखिए।