पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२८४

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२७४ अभिधर्मकोश [२३] अनिच्छावसनान्नान्ये चतस्त्रः स्थितयः पुनः। चत्वारः सालवाः स्कन्धाः स्वभूमावेव केवलम् ॥७॥ विज्ञानं न स्थितिप्रोक्तं चतुष्कोटि तु संग्रहे। चतस्रो योनयस्तत्र सत्त्वानामण्डजादयः॥८॥ ७ ए. अन्य सत्त्वावास नहीं हैं क्योंकि अन्यत्र आवास की इच्छा नहीं होती। यह अन्य कौन हैं ? अपाय हैं। यह कर्म-राक्षस सत्त्वों को वहां ले जाता है और सत्त्व अनिच्छा से वहाँ निवास करते हैं। यह 'भावास नहीं हैं यथा वन्धन-स्थान सत्त्वावास नहीं है।' यदि एक सूत्र का वचन है कि सात विज्ञानस्थिति हैं तो एक दूसरे सूत्र के अनुसार ७ बी.अन्य चार स्थितियाँ हैं।' २ संशिस्तबया मनुष्या एकत्याच देवा। अयं प्रथमः सत्वावासः.....पाँचवा सत्वावास अशियों का है रूपिणः सन्ति सत्त्वा असंज्ञिनोऽप्रतिसंजिनः । तद्यथा देवा असंशिसत्वाः। अयं पञ्चः सत्त्वावासः.....नवा सत्वावास : अरूपिणः सन्ति सत्त्व। ये सर्वश आकिंचन्या- यानं समतिकाय नवसंज्ञानासंज्ञायतनमुपसंपद्य विहरन्ति । तद्यथा देवा नवसंज्ञानासंज्ञायत- नोपगाः । अयं नवमः सत्त्वावासः--दीघ, ३.२६३ , २८८, अंगुत्तर, ४.४०१ के संस्करण के अति समीप। महाव्युत्पत्ति, ११९ में विज्ञानस्थितियों के अतिरिक्त नैवसंज्ञानासंज्ञायतन (९ वा सत्त्वावास) और असंशि-सत्त्व अधिक हैं। यही दोघ, २.६८ में है। दीघ की सूची में 'नवसंज्ञा' के पूर्व असेंशिसत्त्व हैं। । अनिच्छावरानान्नान्ये [य्या २६३.१७] शुआन-चाङ में इतना अधिक है यथा पूर्व व्याख्यात है 'असंज्ञि सत्यों से अन्य चतुर्थध्यानोपग-सत्त्वाबास नहीं हैं।" व्याख्या कहती है कि वसुबन्ध मुखमान अपायों का उल्लेख करते हैं। उनकी अभिसन्धि चतुर्थध्यानोपग देवों से भी है । चतुर्थ ध्यान 'आवास' नहीं है क्योंकि वहाँ अवस्थान करने की इच्छा नहीं होती। संघभद्र का यही मत है--अन्य व्याख्याकारों का विचार है कि वसुबन्धु फेवल अपायों को वजित करते हैं और चतुर्थ ध्यान को सत्त्वावास मानते हैं। उनको युक्ति का अन्वेषण करना होगा च्या २६३.४] चतस्रः स्थितयः पुनः। --८.३ सी. पृ. १३८-९ । दोर्घ, ९, ७, संयुक्त, ३, ६---दोध, ३. २२८ में संयुत्त, ३ . ५४ के अनुसार चार विज्ञानस्थिति परिगणित है : रुपूपाय वा आवुसो विआणं तिहमानं तिति रूपारम्मणं रूपपतिल नन्दूपसेवनं बुद्धिं विरूळ्हिं वेपुल्लं आपज्जति । वेदनूपायं.... संस्कृत संस्करण इसके अति- समीप होगा प्रधान पाठान्तर रूपोपग' है। अर्थ स्पष्ट है : "रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार के समीप जाने से विज्ञान आश्रय का ग्रहण करता है; रूप को आलम्बन और प्रतिष्ठा बना, सुख से संप्रयुक्त हो, विज्ञान वृद्धि को प्राप्त होता है....." किन्तु अभिधर्म (विभाषा, १३७, ३) के अनुसार सूत्र में यह पद है : रूपोपगा विज्ञानस्थिति, वेदनोपगा विज्ञानस्थिति। इनका जो कारकार्थ दिया जाता है वह युक्त नहीं हो सकता। ए.वैभाषिकों का अर्थ : जिस पर विज्ञान स्थित होता है (तिष्ठति) वह विज्ञानस्थिति कहलाता है। यह स्थिति (विज्ञान का यह आलम्बन) विज्ञान का उपग है अर्थात् विज्ञान 1