पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२८६

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२७६ अभिधर्मकोश वैभाषिक उत्तर देता है यदि हम उपपत्त्यायतन (निकाय-सभाग) में संगृहीत पंचस्कन्धों के प्रति साभिराम विज्ञान-प्रवृत्ति का, स्कन्धों में भेद किए बिना, अवधारण करें तो हम कह सकते हैं कि विज्ञान विज्ञानस्थिति है। किन्तु यदि हम एक एक स्कन्ध का विचार करते हैं तो हम देखते हैं कि रूप, वेदना, संज्ञा और संस्कार, जो विज्ञान के आश्रय, विज्ञान से संप्रयुक्त और विज्ञान के सहभू हैं, विज्ञान के संक्लेश में हेतु हैं। किन्तु विज्ञान इस प्रकार विज्ञान-संक्लेश का हेतु नहीं है क्योंकि दो विज्ञानों के युगपदाश्रयत्व का अयोग है । अतः चार विज्ञानस्थिति की देशना में ७ डी-८ ए. केवल (पृथग्) विज्ञान विज्ञानस्थिति नहीं कहा गया है। पुनः भगवत् चार विज्ञान- स्थिति को देशना क्षेत्रभाव से करते हैं और सोपादान कृत्स्न-विज्ञान को देशना बीजभाव से करते हैं। वह वीज को बीज के क्षेत्रभाव से व्यवस्थापित नहीं करते और हम देखते हैं [२६] कि जो धर्म विज्ञान के सहवर्ती हैं उन्हीं का साघुरूप से क्षेत्रभाव होता है। प्रश्न है कि क्या चार स्थितियों में सात का संग्रह है या सात स्थितियों में चार का संग्रह है ? नहीं। ८ बी. संग्रह में चार कोटि हैं।' प्रथम कोटि : सात में संगृहीत विज्ञान का ग्रहण चार में नहीं है। द्वितीय कोटि : अपाय, चतुर्थ ध्यान और भवान के चार स्कन्ध (विज्ञान को वर्जित कर) चार में संगृहीत हैं। तृतीय कोटि : सात में संगृहीत चार स्कन्ध चार में भी संगृहीत हैं। चतुर्थ कोटि : इन आकारों को स्थापित कर अन्य धर्म न सात में संगृहीत हैं, न चार [अर्थात् अपायादि का विज्ञान, अनास्रव धर्म] । हमने कहा है कि धातुत्रय में गत्यादि भेद हैं। ८ सी-डी. वहाँ अण्डज आदि सत्त्वों की चार योनियां हैं। 3 और परमार्थ का अनुसरण किया है। लोरसवा के अनुसार : विज्ञानाहारे अस्ति नन्दी। अस्ति रागः। यत्र नन्दी तत्र रागः। तत्र प्रतिष्ठितं विज्ञान तिष्ठति। पालि विरूव्ह' के अनुरूप अभ्यारूड है (इस शब्द का प्रयोग नाविक के नौका पर चढ़ने के लिये किया गया है) केवलम् । विज्ञानं न स्थितिः प्रोक्तम् । व्या २६४.२०] संयुक्त, २, ६--संयुत्त, ३.५४ से तुलना कीजिये। क्षेत्रभावेन चतस्रो विज्ञानस्थितयो देशिताः । विज्ञानं बीजभावेन सोपादानम् [ = स्वभूमिकया तृष्णया सतृष्णम्] कृत्स्नम् [ % सर्वसन्तानगतम्]. व्या २६४.२३] अतीत और अनागत चार स्कन्ध अतीत और अनागत विज्ञान की स्थिति है। चतुःकोटिस्तु संग्रहे। व्याख्या २६३.३३--व्याल्या का पाठ 'चतुष्कोटि' है] चतलो योनयस्तन सत्त्वानामण्डजादयः।। समानार्थक शब्द के लिये 'मातृका' उपयुक्त है। साधुतर यह होगा : "चार प्रकार को उत्पत्ति।" कारणप्रज्ञाप्ति, अध्याय १५ (बुद्धिस्ट कास्मालजी, ३४५) में चार योनि और उनका पाँच गतियों से सम्बन्ध व्याख्यात है। वसुबन्धु अपनी सूचनाओं को { कपोत- १ २