पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२९

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१४ अभिधर्मकोश में पुष्प-वृक्ष, फल-वृक्ष कहते हैं। ८ सी. इन्हें 'सरणा' भी कहते हैं । [१४] 'रण' क्लेश हैं क्योंकि वह अपने को और दूसरे को बाधा पहुँचाते हैं। सासव संस्कृत 'सरण' कहलाते हैं क्योंकि क्लेश वा रण वहां प्रतिष्ठा-लाभ करते हैं, उनसे अनुशयित, उपसेवित होते हैं। इसी प्रकार वह सालव' कहलाते हैं क्योंकि वहां आस्रव अनुशयन करते हैं। ८. सी-डी. वह दुःख, समुदय, लोक, दृष्टिस्थान, भव भी हैं।' १, दुःख, क्योंकि वह आर्यों के प्रतिकूल हैं (६.२) । २. समुदय, क्योंकि दुःख वह हेतुभूत हैं (६.२) । ३. लोक, क्योंकि वह विनाशप्रवृत्त हैं। ४. दृष्टिस्थान, क्योंकि ५ दृष्टियां यहां अवस्थान करती हैं (तिष्ठति) और प्रतिष्ठा- लाभ करती हैं (५.७) (प्रकरण, ३३ बी ७) । ५. भव, क्योंकि उनका अस्तित्व है। (८. पृ. १४१) रूपं पंचेन्द्रियाण्यः पंचाऽविज्ञप्तिरेव च । तद्विज्ञानाश्रया रूपप्रसादाश्चक्षुरादयः ॥९॥ हमने कहा है कि ५ स्कन्ध हैं (१.७, २०)। हम पहले रूपस्कन्ध का निर्देश करते हैं (१.९.१४ वी )। ९ ए-बो. पांच इन्द्रिय, पांच अर्थ या विषय और अविज्ञप्ति--यह रूप हैं। पांच इन्द्रियः 1 १ २ सरणा अपि । मझिम, ३.२३५ रण, सरण, अरणा (७.३५ सी) पर मज्झिम, ३.२३५, मूसिओं, १९१४, पृ०३५, बालेसर, जो स्ट्राइटलाजिगकाइट डे सुभूति (होडेलवर्ग, १९१७) देखिए। दुःख समुदयो लोको दृष्टिस्थानं भवश्च ते॥ अस्मिोव रोहित व्यायाममात्रे कलेवरे लोक प्रज्ञपयामि लोकसमुदयं च (व्याख्या २३.६), (अंगुत्तर, २.४८: रोहितस्स देवपुत्त) (व्याख्या २३.६ में रोहित के स्थान में 'रोहिताश्व पाठ है )-- भगयत् पुनः कहते हैं: लुह्यते प्रलुह्यते तस्माल्लोकः (संयुत्त ४.५२) (व्याख्या २३.७ में लुज्यते प्रतुज्यते पाठ है)--अष्टसाहनिका, पृ०२५६, महाव्युत्पत्ति, १५४, १६ (बोगि- हारा, बोधिसत्वभूमि, लोपजिग-~~१९०८, पृ०.३७) यहां लुजि' धातु है, 'लोहि नहीं । ७ भवतीति भवः-व्यास्था : भवः कतमः। पंचौपादानस्कन्धा इति वचनात् (व्याख्या २३.१३) वेनचा का अनुवादः "यह भवत्रय हैं।" ऐसा प्रतीत होता है कि वसुबन्यु ने प्रकरण, ३२ वी २ से लिया है। "कौन धर्म भव' हैं? सासव धर्म। कौन धर्म 'भव नहीं हैं? अनाव घम।" ४ एपं पंचेन्द्रियाण्याः पंचाविज्ञप्तिरेव च। भूमिका में अनुदित प्रकरणपाद, अध्याय १ से तुलना कीजिए।