पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२९६

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२८६ अभिधर्मकोश किन्तु हमारे प्रतिपक्षी इस सूत्र का पाठ इन शब्दों में नहीं करते। तृतीय हेतु के स्थान में उनके सूत्र में यह पठित है : "स्कन्ध-भेद [अर्थात् मरण-भव प्रत्युपस्थित है।"२ [३८] बहुत अच्छा, किन्तु इसमें सन्देह है कि वह आश्वलायनसूत्र का परिहार कर सकते हैं : “इस गन्धर्व के बारे में जो प्रत्युपस्थित है क्या आप जानते हैं कि यह किस वर्ण का है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र ? क्या आप जानते हैं कि यह किस दिशा से आता है, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम या उत्तर?" यह 'आगमन' शब्द दिखाता है कि यहाँ अन्तराभव इष्ट है, 'स्कन्ध-भेद' नहीं । यदि यह सूत्र हमारे विपक्षियों के आम्नाय में पठित नहीं है तो, १२ डी . अन्तराभव पंचोक्ति से सिद्ध होता है। भगवत् की शिक्षा है कि पाँच अनागामिन् हैं : अन्तरापरिनिर्वायिन्, उपपद्यपरिनिर्वायिन्, अनभिसंस्कारपरिनिर्वायिन्, साभिसंस्कारपरिनिर्वायिन्, ऊर्ध्वस्रोतस्परिनिर्वायिन् । प्रथम वह आर्य है जो 'अन्तरा' में, अन्तराभव में, निर्वाण का लाभ करता है; द्वितीय वह है जो पुनः उपपन्न होकर निर्माण का लाभ करता है.....। कुछ आचार्यों का (विभाषा, ७९, ७) मत है कि अन्तरापरिनिर्वायित् वह आर्य है जो 'अन्तर' नाम के देवों में उपपन्न हो परिनिर्वृत होता है। किन्तु फिर उनको 'उपपद्य' आदि देव भी मानना होगा, जो अयुक्त है। १२ डी. और गतिसूत्र से। सप्तसत्पुरुषगतिसूत्र से।' इस सूत्र की शिक्षा है कि काल और देश के प्रकर्ष-भेद से तीन अन्तरापरिनिर्वायी कहे गये हैं : प्रथम परीत्त शकलिकाग्नि के सदृश है जिसका उत्पद्यमान होते ही निर्वाण होता है। दूसरा तप्त लोहे की प्रपाटिका के सदृश है जो उड़ उड़ कर अन्तहित हो जाती है। [३९] तीसरा तप्त लोहे की प्रपाटिका के सदृश है जो उत्प्लुत हो पृथिवी पर बिना गिरे ही २ १ २ लोत्सव के अनुसार--शुआन-चाड गन्धर्व प्रत्युपस्थित है। यदि वह अन्तराभव नहीं है तो गन्धर्व क्या है ? पूर्व स्कन्धों का भेद कैसे प्रत्युपस्थित होगा? यदि उनके आम्नाय में यह सूत्र पठित नहीं है तो वह आश्वलायनसूत्र का क्या व्याख्यान करते हैं ?... हमारे अनुमान से अर्थ यह है : “जो निकाय हमारे विपक्ष में है उसका ऐसा कहना है कि 'गन्धर्व' शब्द का अर्थ मरणभव या स्कन्ध-भेद है. व्याख्या : स्कन्धभेदश्च प्रत्युपस्थित इति मरणभवः। [च्या २७० . १६] अस्सलायनसुत्त, मज्झिम, २. १५७ का संस्करण हमारे सूत्र से प्राचीन है। संयुक्त, ३७, २०, दीर्घ, ८. १४, दीघ, ३.२३७; कोश, ६.३७ । कथावत्यु, ८.२ और पुग्गलपत्ति (नीचे पृ. ४०, टिप्पणी १ में उद्धृत ) का अन्तरा परिनिर्वायिन् के सम्बन्ध में जो भी विचार हो, अंगुत्तर, २.१३४ में इस आर्य की जो व्याख्या की गयी है उससे अन्तराभव की सिद्धि होती है (नीचे ३. ४०सी-४६ ए. पर टिप्पणी देखिये) मध्यम, २,१, अंगुत्तर, ४.७०, कोश, दिया है। मैंने पालि रूप से जे. आर. ए. एस. १९०६, ४४६ में उसकी तुलना की है । ६.४०--संस्कृत रूप व्याल्या में अविकल .