पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३०५

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २९५ १२ 4 वी. भदन्त वसुमित्र कहते हैं कि "अन्तराभव सात दिन अवस्थान करता है। यदि उपपत्ति के लिये आवश्यक प्रत्यय-सामग्री नहीं है तो अन्तराभव की मृत्यु होती है और वह पुनः उत्पन्न होता है। सी. अन्य आचार्यों का कहना है कि उसका अवस्थान-काल मान सप्ताह का है । डी. वैभाषिक' कहते हैं कि "क्योंकि यह उपपत्ति (सम्भव) की अभिलाषा करता है इसलिये यह अल्पकाल के लिये ही अवस्थान करता है और प्रतिसन्धि-ग्रहण के लिये वेग से जाता है। मान लीजिये कि वाह्य प्रत्यय-सामग्नी विद्यमान नहीं है । तो दो में से एक बात होगी: था तो पूर्वकृत कर्म ऐसे हैं कि उपपत्ति का स्थान और उपपत्ति का स्वभाव नियत है। इस अवस्था में यह कर्म प्रत्यय-सामग्री का आवाहन करते है। अथवा यह नियत नहीं हैं। उस अवस्था में उपपत्ति एक अन्य स्थान में होती है और अन्य स्वभाव की होती है । दूसरों के अनुसार (विभाषा,७०,२) यदि प्रत्ययों का सन्निपात नहीं होता तो अन्तरा- भव की उत्पत्ति अन्यत्र उन अवस्थाओं में होगी जो उस देश की अवस्थाओं के सदृश हैं जहाँ उसकी उपपत्ति होनी चाहिये थी । वृषभ वर्षा में, श्वान [५०] हेमन्त में, कृष्ण ऋक्ष शिशिर में, अश्व ग्रीष्म में, मैथुन नहीं करते। दूसरी ओर महिषादि के लिये कोई ऋतु नियत नहीं है। यदि वर्षा की ऋतु हो तो जिस अन्तराभव को वृषभों में उपपन्न होना चाहिये वह महिषों में उपपन्न होगा। इसी प्रकार श्वान के स्थान में शृगाल, कृष्ण ऋक्ष के स्थान में भूरा ऋक्ष, अश्व के स्थान में गर्दभ होता है। किन्तु हम ऐसे वाद को नहीं स्वीकार कर सकते। हम जानते हैं कि जिस कर्म से निकायसभाग का आक्षेप

५ १ विभाषा का तृतीय मत। विभाषा का द्वितीय मत ! यह शमदत्त (?) का मत है। कमावत्यु के तोयिक : सताह वा अतिरकसत्ताह व तिद्वति। जो वाद तिन्त्रत में पाये जाते हैं उनके लिये जाइके और शरच्चन्द्रदास, वार-दो देखिये :......कम या अधिक काल के सामान्यतः ४९ दिन से कम के .......और ४९ दिन से अधिक के नहीं। विभाषा का प्रथम मत [इससे क्या यह परिणाम निकल सकता ह कि वसुबन्ध के अनुसार भाषिक विभाषा को प्रथम पंक्ति में सूचित मत ग्रहण करते हैं ? ५.६१, टिप्पणो देखिये] कर्मण्येव प्रत्ययसामग्रीमावहन्ति-यदि अन्तराभव को उपपत्ति अश्व को होनी है तो कर्मों के आधिपत्य से अश्वों का मैयुन प्रसिद्ध काल का अतिक्रम कर कालान्तर में होता है। व्या २८०. १२] घोषक (विभाषा, ७०,१)---पिता सन्निपात चाहता है, माता नहीं चाहती। पिता दूसरी स्त्री से मैयुन-फर्म करता है। येन अन्यत्र काले गोधूपपत्तव्यं स गवयेषूपपद्यते । व्या २८७.१६] किन्तु जिस वाद को निन्दा वसबन्ध करते हैं उसे आचार्य संघभद्र निर्वोप बताते हैं। कल्माषपाद आदि का वृष्टान्त यह दिखाता है कि गति-नियत कर्मों का उपपत्ति-वैचित्र्य देखा जाता है। ने निकायभेदादेकाक्षेपकत्वं हीयते तत्कर्मण एकजातीयत्वाद् गव्याकृतिसंस्थानान्तरापरि- ६ २