पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३०९

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २९९ संप्रजानन् विशत्येकस्तिष्ठत्यप्यपरोऽपरः। निष्कामत्यपि सर्वाणि मूढोऽत्यो नित्यमण्डजः ॥१६॥ १६. एक संप्रजन्य के साथ प्रवेश करता है ; अपर संप्रजन्य के साथ अवस्थान भी करता है; अपर संप्रजन्य के साथ निष्क्रमण भी करता है। अपर मूढचित्त से यह सब करता है । अण्डज नित्य इस अन्त्य प्रकार का होता है। प्रयम संप्रजन्य के साथ अवस्थान और निष्क्रमण नहीं करता; द्वितीय संप्रजन्य के साथ निष्क्रमण नहीं करता; तृतीय का इन सव क्षणों में संप्रजन्य होता है; चतुर्थ इन सब कर्मो में विना संप्रजन्य के होता है। आचार्य इन चार गर्भावक्रान्तियों का निर्देश अपनी कारिका में सूत्र के प्रतिलोम करते हैं।' 'संप्रजानन् विशत्येकस्तिष्ठत्यपरोऽपरः। निष्कामत्यपि सर्वाणि सूढो नित्यमण्डजः॥ दीप, ३.१०३, २३१, विभाषा, १७१, १२ । विभाषा, १७१, १२--चार प्रकार की गर्भावक्रान्ति हैं (योनि में प्रवेश): संप्रजन्य के बिना कुक्षि में प्रवेश, स्थिति और वहां से निष्क्रमण; संप्रजन्य के साथ प्रवेश, संप्रजन्य के विना स्थिति और निष्क्रमण संप्रजन्य के साथ प्रवेश और स्थिति, संप्रजन्य के बिना निष्क्रमण संप्रजन्य के साथ प्रवेश, स्थिति और निष्क्रमण । यह शास्त्र क्यों है?--सूत्र के अर्थ को विभक्त करने के लिये (विभक्तुम्) । सूत्र को शिक्षा है कि चार गर्भावकान्ति हैं....किन्तु उसमें उनका व्याख्यान नहीं है। इस शास्त्र का आश्रय मूलसूत्र है। जो सूत्र में उक्त नहीं है उसके कहने के लिये हम इस शास्त्र की रचना करते हैं। संप्रजन्य के विना प्रवेश, स्थिति और निष्क्रमण कैसे होता है ?--दो प्रकार हैं: १. जिसका पुण्य अल्प होता है, प्रवेश-काल में उसके संज्ञा और अधिमोक विपरीत होते हैं। वह विचारता है : “देव बरसता है। २. जिसका बहुपुण्य होता है वह विश्वास करता है कि मैं प्रासाद में प्रवेश कर रहा हूँ विभाषा १७१, १४ में चार गर्भावशान्तियों की समीक्षा अनुलोम-क्रम से की गई हैं। चतुर्थ--- संप्रजन्य के साथ प्रवेश, स्थिति और निष्क्रमण; तृतीय--संप्रजन्य के साथ प्रवेश और स्थिति; द्वितीय-संप्रजन्य के साथ प्रवेश प्रयम--संप्रजन्य का नित्य अभाव ।--पांच मत हैं। साएको ने जो उद्धरण दिया है उसके अनुसार : १. चतुर्थ : बोधिसत्त्व, तृतीय : प्रत्येक, द्वितीय : पा-र-मि-त-श्रावक, प्रथम : अन्य। २. द्वितीय : स्त्रोतआपन्न, सकृदा- गामी। ३. सत्वों के ज्ञान और विशद कर्म होता है, ज्ञान होता है और विशद कर्म नहीं, ज्ञान नहीं होता किन्तु विशद कर्म होता है। न ज्ञान होता है और न विशद कर्म । चार गर्भावझान्ति इस वर्गीकरण के अनुरूप हैं। जब प्रथम कुक्षि में प्रवेश करते हैं तव गर्भावक्रान्ति विशद होती और विक्षेप करने वाले सर्व स्प्रष्टव्य से विनिर्मुक्त होती है। जब वह वहाँ अवस्थान करते ., जब वह वहां से निष्क्रान्त होते हैं तो उत्पत्तिद्वार उन्मुक्त, सुगम और प्रतिवन्धरहित होता है । इसका यह परिणाम होता है कि इन सत्त्वों का किती काल में स्मृतिमोष नहीं होता। अन्य प्रकार के सत्त्वों के निष्क्रमण, स्थिति और प्रवेश की अवस्या उत्तरोत्तर बिगड़ती जाती है। इससे 'स्मृतिमोप' होता है। कम से बोधिसत्त्व आदि-~४. तीन शुभ गर्भावकान्ति वह हैं जिन्हें बोधिसत्त्व अपनी चर्या के तीन असंख्येय कल्पों में ग्रहण करते हैं। . दोध, ३.१०३ ( डायलाग्ज ३.पु.९८) पर बुद्धघोस : चतुर्थ---सर्वज्ञ बोधिसत्व तृतीयको महाश्रावक, प्रत्येक, बोधिसत्त्व, द्वितीय-८० महायेर; प्रयम--सामान्य पुद्गल।