पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३१

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अभिधर्मकोश का दिखाई पड़ता है, एक वर्ण मानते हैं। इनके अनुसार २१ प्रकारहोते हैं । 'शात' का अर्थ है 'सम संस्थान' । 'विशात' इसका विपर्यय है। 'महिका वह वाष्प हैं जो भूमि और उदक से उत्थित होता है। 'आतप' सूर्य का प्रकाश है। आलोक चन्द्र, तारक, अग्नि, ओषधि और मणि का प्रकाश है। 'छाया' जो प्रकाश के प्रतिवन्ध से उत्पन्न होती है वह है जहाँ रूपों का दर्शन होता है। अन्धकार इसका विपर्यय है। अन्य आख्याओं के अर्थ बताने की आवश्यकता नहीं है। ३. संस्थान के बिना वर्ण रूप हो सकता है: नील, लोहित, पीत, अवदात, छाया, आतप, आलोक, अन्वकार। वर्ण के बिना संस्थान रूप हो सकता है:-दीर्घ-हस्वादि का वह प्रदेश जो कायविज्ञप्ति- स्वभाव है। (४. २) रूप वर्ण-संस्थानात्मक हो सकता है: रूप के परिशिष्ट प्रकार । अन्य आचार्यों का मत है कि केवल आतप और आलोक वर्णमात्र हैं क्योंकि नील, लोहितादि का परिच्छेद दीर्घ-हस्वादि के आकार में दिखाई देता है। ४. किन्तु सौत्रान्तिक कहते हैं कि एक द्रव्य उभयथा कैसे विद्यमान हो सकता है (विद्यते), कैसे वर्ण-संस्थानात्मक हो सकता है, क्योंकि वैभाषिकों का सिद्धान्त है कि वर्णरूप और संस्थानरूप द्रव्यान्तर हैं (४.३)। [१७] क्योंकि वर्ण और संस्थान उभय का एक द्रव्य में प्रज्ञान, ग्रहण होता है । यहाँ 'विद्' धातु ज्ञानार्थ है, सत्तार्थ नहीं है। किन्तु सौत्रान्तिक उत्तर देते हैं कि कायविज्ञप्ति में, भी वर्ण-संस्थानात्मक होने का प्रसंग होगा। १० वी. शब्द अष्टविध है।' १. यह चतुर्विध है : उपात्तमहाभूतहेतुक, अनुपात्तमहाभूतहेतुक {१. ३४ सी-डी), सरवा- ख्य, असत्वाख्य (सत्वासत्वास्य) २ चतुर्विध शब्द मनोज-अमनोज्ञ भेद से पुन: अष्टविध होता है। प्रथम प्रकार: यथा हस्तशब्द, वाकशब्द द्वितीय प्रकार : यथा वायु-वनस्पति-नदी शब्द ३ विज्ञानकाय, २३.९, ४५ वी १८, विभाषा, ७५, १७. ४ धम्मसंगणि, ६३६. १ (शब्दोऽध्या भवेत्) धम्मसंगणि, ६२१ सत्त्वात्य सत्यम् आचष्टे दियाख्या २७.१]-प्रत्येक धर्म जो ज्ञापित करता है कि यह सत्य है 'सत्यास्य' कहलाता है। जब फोई वाग्विज्ञप्ति-शब्द (४.३ डी) सुनता है तो वह जानता है कि "यह सत्व है" । वाग्विज्ञप्ति से अन्य शब्द मसत्वात्य है। २