पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३१२

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३०२ अभिधमकोश असमर्थ हैं। हम कहते है कि किसी आत्मा के अभाव में, किसी नित्य द्रव्य के अभाव में क्लेश और कर्म से अभिसंस्कृत (अभिसंस्कृत पर १. १५ ए) स्कन्धों की सन्तान माता की कुक्षि में प्रवेश करता है और यह सन्तान मरण-भव से उपपत्ति-भव पर्यन्त विस्तृत होता है और इसका स्थान अन्तराभव-सन्तति लेती है। यथाक्षेपं क्रमाद् वृद्धः सन्तानः क्लेशकर्मभिः । परलोक पुनर्यातीत्यनादिभवचक्रकम् ॥१९॥ १९ ए-सी . आक्षेपक हेतु के अनुरूप सन्तान की क्रमशः वृद्धि होती है और कर्म तथा क्लेश के योग से यह पुनः परलोक को जाता है। आयुष्य कर्म (२. १० ए) सत्त्वों के अनुसार भिन्न होते हैं । अतः सब स्कन्धसन्ततियाँ एक ही काल के लिये उस भव में आक्षिप्त नहीं होती हैं जहाँ वह प्राप्त होती हैं। अतः सन्तति [५८] की वृद्धि उतने काल तक होती है जितने काल के लिये वह आक्षिप्त है । यह वृद्धि क्रमशः होती है जैसा कि आगम की शिक्षा है : "प्रथम कलल, कलल से अर्बुद होता है, अर्बुद से पेशिन् होता है, पेशिन् से घन होता है, घन से प्रशाखा, केश, लोम, नखादि और उनके साथ उनके अधिष्ठान, रूपीन्द्रिय उत्पन्न होते हैं।" ---कललादि गर्भ की पांच अवस्था है।


२ यथाक्षेपं ऋपाद वृद्धः सन्तानः क्लेशकर्मभिः। परलोक पुनर्याति १ पथमं कललं होति कलला होति अब्बुदं । अन्बुदा जायते पेसो पेसी निब्बत्तत्ति घनो॥ घना पसाखा जायन्ति केसा लोमा जखानि च । यं चस्स भुंजति माता..... संयुत्त, १.२०६ (जातक, ४.४९६ को अर्थकथा, कथावत्यु, १४.२); महानिद्देस, १२०, महाव्युत्पत्ति, १९०--विडिश, बुद्धज गेयुत ८७ मैं, निरुक्त, गर्भ-उपनिषद्, सांख्य और आयुर्वेद के ग्रन्थों की तुलना करते हैं। हम देखते हैं कि मिलिन्द, ४. और विसुद्धिमार्ग, २३६ अकाल मरण का वर्णन करते हुए 'पसाखा' का उल्लेख नहीं करते : "गर्भ कललावस्था में... में, वो मास में....... मृत होता है।" महानिद्देस में; होता है। यह अनुत्पन्न हो मृत होता है. .."]] संस्कृत पाठ (संयुक्त, ४९, ६) में चतुर्थ पंक्ति इस प्रकार है : [रूपीन्द्रियाणि जायन्ते मंजनान्यनुपूर्वशः। 'स्पोन्द्रिय' चक्षु, श्रौत्र, प्राण, और जिह्वा के रूप प्रसाद हैं। [- जिसे चक्षु कहना चाहिये, जो देखता है.....] ध्यंजन इन चक्षुरादि के अधिष्ठान है क्योंकि अधिष्ठान के कारण इन्द्रिय की अभिव्यक्ति होती है (अभिव्यज्यते)। [कायेन्द्रिय आदि से ही होती है। कललादि पर प.५१-५२, ६२. टिप्पणी १-- नैब्जियो, १३२५ । कथावस्थ, १४.२ को अर्थकथा के अनुसार ७७ दिन के अनन्तर चक्षुरादि इन्द्रियों का प्रादुर्भाव होता है। महायान को एक टीका के अनुसार गर्भावस्था आठ हैं : १--५. कललावस्था.. खावस्था, ६. केशलोमावस्था, ७. इन्द्रियावस्था, ८, व्यंजनावस्था (अर्थात् वह काल ! ......घनावस्था में, एक मास यह पसाखावस्था में मृत