पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२३

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश सिकार है। मूत्रान्तर की देशना है कि अयोनिशोमनमिकार का हेतु अविद्या है और वहां यह निर्दिष्ट है कि इसका उत्पाद स्पर्गकाल में होता है : “चक्षु और रूपप्रत्ययवा एक मोहन [= अविद्या से जात] आविल मनसिकार उत्पन्न होता है। एक सूत्र में तृष्णा के प्रभव का निर्देश है : "अविद्या-संप्रयुक्त स्पर्ग से संजात वेदना से तृष्णा उत्पन्न होती हैं। अतः स्पर्श- काल में होने वाला अयोनिशोमनसिकार वेदना की सहदतिनी अविद्या का प्रत्यय है। --अतः अविद्या का अहेतुकत्व नहीं है और अंगान्तर के उपसंन्यान का कोई स्थान नहीं है। अनवस्था-प्रसंग भी नहीं है क्योंकि अयोनिशोमनसिकार जो अविद्या का हेतु है स्वयं मोहसंजा से प्राप्त अविद्या से उत्पन्न होता है। यह चरक है : अयोनिशोमनस्कार से अविद्या, अविद्या से अयोनिशोमनस्कार-व्या २९० . ५]] आचार्य कहते हैं- "बहुत अच्छा, किन्तु इसका आन्यान प्रतीत्यसमुत्पादसूत्र में नहीं है ; वहाँ होना चाहिये था।" स्पष्ट शब्दों में निर्देश करने का कोई स्थान नहीं है क्योंकि युक्ति से यह सिद्ध होता है । वास्तव में अर्हत में वेदना होती है किन्तु वह तृष्णा का प्रत्यय नहीं होती। इनसे यह परिणाम [७२] निकलता है कि वेदना तभी तृष्णा का प्रत्यय होती है जब यह क्लिप्ट होती है, अविद्या से संप्रयुक्त होती है । अविपरीत स्पर्ग इस क्लिप्ट वेदना का प्रत्यय नहीं होता और अविद्या से विनिर्मुक्त अर्हत् का विपरीत स्पर्श नहीं होता। यत: जिस स्पर्श को प्रतीत्यसमुत्पादसूत्र में वेदना का प्रत्यय कहा गया है जो बेदना तृष्णा का प्रत्यय है वह स्पर्श साविध स्पर्श है। [अतः साविद्य- स्पर्शप्रत्यया वंदना। साविद्यवेदनाप्रत्यया तृष्णा व्या २९० . १९ ] 1 अतः पूर्वोक्त युक्ति से यह सिद्ध होता है कि सूत्र के अनुसार अयोनिशोमनमिकार की उत्पनि स्पर्ण-काल में होती है। किन्तु आचार्य कहते हैं कि इस नियम ने कि अन्य सूत्रों के अपाश्य मे युक्ति अनिवार्य अंगो के अवचन को युक्त सिद्ध करती है यहाँ अयोनि मननिकार, अविद्या और अयोनिशीम नसिकार के अन्योन्यहेतुकत्य का दर्शन कर--अतिप्रसंग प्राप्त होता है। [फिर स्या, बेदना, संस्कार, जाति इन अंगों का भी अवचन प्राप्त होगा । इस आक्षेप का' कि अविद्या ने पूर्व और जरामरण के अनन्तर अन्य अंगों का निर्देन न करने से संमार अनादि और अनन्त न होगा ययायं ऊपर पृ० ७०, टिप्पणी ३ 'संयुक्त, ११, ८-चक्षुः प्रतीत्य रूपाणि चोत्पद्यत आचिलो मननिकारो मोहजः-मोहल: अविद्याज व्या २८९.२६] मध्यमकवृत्ति, ४५२, प्रतीत्यसमुत्पादनून के अनुसार : आदिलो मोहजो मननिकारो निक्ष. वोऽविद्याया हेतुः। " अविद्यालस्पर्शजं वेदितं प्रतीत्योत्पन्ना तृष्णा इति मूत्रान्तरे निर्दिष्टम् । [च्या २८९.३०] संयुक्त, २,४---संयुत्त, ३. ९६: अविज्जासम्फन्सजेन.. ..वेदयितेन फन्स अस्तवतो प्रयुज्जनस्स उप्पन्ना ताहा। 'अयोद्यमेव त्वेतत्--[व्या २९१.६]